दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो.......

भले  राम  ने  विजय   है  पायी, 
तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।।

घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब,
लगे   लगाये    लिए   मुखौटे।
क्रोध, कपट  और  चुगली  से,
सजे  सजाये  छल  में  लिपटे।
हैं राम चिरंतन  सत्य सनातन,
रावण   वैर   विकार  उतारो।।

भले  राम  ने  विजय   है  पायी, 
तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।।

खड़े  तमाशा   देखने   वाले,
तेरा  मन  भी   कलुषित  है।
हुआ पतन है आज सभी का,
असुर भाव  से  कलंकित  है।
घूम   रहें   हैं   खर-दूषण   सा,
मायावी मृग मारीच को मारो।।

भले  राम  ने  विजय   है  पायी, 
तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।।

व्यर्थ    हो    रहे    अर्थ    हमारे,
भ्रष्टाचारी     खूब     हैं    बढ़ते।
छाया    है    संकट     का    घेरा,
कहां  अनाचारी  शूली  हैं  चढ़ते।
राजनीति   में   जाति   लड़   रहीं,
कहें  निराला  प्रपंच   को   मारो।।

भले  राम  ने  विजय   है  पायी, 
तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।।

       - दयानन्द त्रिपाठी निराला

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत
मान नहीं कर सकते हो तो,
मत करना अपमान कभी।
आदर करना जब सीखोगे,
पाओगे सम्मान तभी।।

यही सनातन धर्म राष्ट्र का,
यही तो रीति पुरानी है।
विश्व मानता लोहा अपना,
अपनी प्रीति कहानी है।
भारत की मानवता उत्तम,
जिसको करते नमन सभी।।
     पाओगे सम्मान तभी।।

रहे धरोहर सदा सुरक्षित,
बस प्रयास यह करना है।
मेल-जोल से जीवन बीते,
श्याम-श्वेत से बचना है।
उत्तर-दक्षिण,पूरब-पश्चिम,
सोच न उपजे गलत कभी।।
       पाओगे सम्मान तभी।।

बनो सहायक मानव हो तुम,
सुंदर सोच बढ़ाने में।
ऊँच-नीच का भाव न पनपे,
जीवन-बाग सजाने में।
आदर देकर मिलता आदर,
मान बढ़ेगा शीघ्र अभी।।
       पाओगे सम्मान तभी।।

तुम हो रचना श्रेष्ठ जगत की,
जग-आभूषण-शान तुम्हीं।
विधि-विधान के प्रतिनिधि जग में,
एकमात्र पहचान तुम्हीं।
शुद्ध सोच के हो परिचायक-
सबसे तेरी सदा निभी।।
     पाओगे सम्मान तभी।।
                © डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

अमरनाथ सोनी अमर

मुक्तक- देश प्रेम! 

मात्रा- 30.
देश- प्रेम रहता है जिसको,     लालच  कभी  न करता है! 
सर्व-समाजहित स्वजनोंका, 
वही  बिकास  तो करता है! 
किन्तुआजका कौनजमाना, 
खाते  जन - भण्डार  सभी! 
फिरभी उनका पेट न भरता, 
पेट- --पीटता  फिरता   है!! 

लालच जिन्हें  सवार हो गया, 
वह   चुनाव  तो   लड़ता  है! 
जनमत प्रेम दिखाता फिरता, 
झूँठा     वादा     करता    है! 
मत  लेकर  कुर्सी  जब पाया, 
देश --प्रेम  से   अलग   हुआ! 
जनता  वादा  भूल  गया  वह, 
वही    लुटेरा     बनता    है!! 

अमरनाथ सोनी "अमर "
9302340662

अर्चना सिंह

शीर्षक - रक्षाबंधन, कोरोना काल में  । 

धरती का रूप सुहाना ,चारों ओर बहार, 
आया सावन झूम के ,लाया राखी का त्यौहार ।। 

मां बापू की आंखों का तारा 
हम सब बहनों का प्यारा
संकट चाहे जितने आए
 पैर अपने पसार न पाए 
इस पावन रक्षाबंधन पर
तन मन सब न्योछावर 
अजब अनूठे रंग में डूबा राखी का त्यौहार
आया सावन झूम के ,लाया राखी का त्यौहार  ।। 

भैया तुम जियो हजारों साल
प्रार्थना करती बहना यही हर साल
सुख समृद्धि से भरा जीवन ,रहे खुशहाल 
प्यार का धागा बांधू, रहो मालामाल
सबका मंगल करना भैया 
सदा बना रहे अपना प्यार
रेशम के धागों से बंधा भाई बहन का प्यार
आया सावन झूम के लाया राखी का त्यौहार  ।। 

अबकी बार ना आऊंगी भैया 
कहना आंसू ना बहाएगी मैया
बीत जाए जब 
कोरोना काल
दौड़े आऊंगी अगले साल
पर मेरे रेशम का धागा बांध अपनी कलाई पर 
मेरे स्नेह और विश्वास का बांधे रखना डोर
मन मेरा हर्षा देना दूर से ही अबकी बार
आया सावन झूम के लाया राखी का त्यौहार। । । 
                                     अर्चना सिंह

व्यंजना आनंद मिथ्या

सुन आत्मा को
*******************
    आत्मा की
            आवाज ।
  कोई सुनता नहीं ।
         इसलिए 
    ही तो ,
     हम मानवता से
बहुत दूर 
       कोशों दूर -
     हुए जा रहें है ।
         जब हम सुनते
     आत्मा  की 
              आवाज ।
    तब हमारा 
  होता खुद से
         साक्षात्कार ।
    हम
        हम नहीं रहते,
   ईशमय 
        होते हैं ।
तब कोई न मित्र
      न कोई दुश्मन ,
    हर जन अपना।
        दुनिया तो 
   बस एक सपना।।
       कोई नहीं 
           सब झूठ है ।
   माया का सब
          एक रूप है ।।

*******************
व्यंजना आनंद मिथ्या आनंद

सुधीर श्रीवास्तव

मैं कौन हूँ?
**********
प्रश्न कठिन है ये कह पाना
कि मैं कौन हूँ?
कोई भी विश्वास से कह नहीं सकता
कि मैं कौन हूँ?
पर दंभ में चूर होकर
जाने कितने यह तो कहते हैं
तुम्हें पता भी है कि मैं कौन हूँ?
धमकी से दबाव बनाने का 
भौकाल जरूर बनाते हैं,
परंतु सच में मैं कौन हूँ का
अहसास कहाँ कर पाते।
यह विडंबना नहीं तो क्या है?
मैं कौन हूँ के नाम पर
रोब गाँठते फिरते हैं ,
यह जानने की जहमत तक 
नहीं उठाना चाहते कि
कि वास्तव में मैं कौन हूँ।
मैं कौन हूँ यह जानना
बड़ा ही मुश्किल है,
फिर भी खोज में लगा हूँ
शायद अगले...अगले या फिर
अगले पलों में ही सही
यह जान तो सकूँ
कि मैं कौन हूँ।

● सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा उ.प्र.
  8115285921
©मौलिक, स्वरचित

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मेरा सादर प्रणाम, आज के विषय में लेखनी समाज व परिवार को ताकत व बुलन्दियों तक अँटाने वाली शख्सियत ।। महिला।। पर चली है,अवलोकन करें....                                 हुँकारु रही महिला यहु काल दिनानु गुलामी के बीति गये हैं।।                              दीवारी चहर बहु कैदु रही सबु दुक्ख गये सपने जो नये हैं ।।                         परदा सती औ सभी कुप्रथा कै होली जली सुरलोकु गये हैं।।                              भाखत चंचल हिन्द मही अबु बेटी हमारी जे शस्त्र नये हैं।।1।।                         खेत मकान दुकान सबै अबु शासन केरि ये प्लान नये हैं।।                          पुरूष प्रधान कै बाति पुरान विधान नये सपने भी नये हैं ।।                               कालेज शिक्षा मा आगे खडी़ ऊ सजी सँवरी परिधानु नये हैं।।                           भाखत चंचल शिक्षक परीक्षक बार्डर सीना हु तानि गये हैं।।2।।                           काज नही जग केरे कोई महिला जेहिसे अनजान रही हो।।                                  चिकित्सा गनी याकि थाना अदालत कोर्ट महूँ ऊ सवार सही हो।।                    बागवानी गनी याकि खेती किसानी खेलौ मँहय हुँकार मही हो।।                      भाखत चंचल विधायकु सांसदु मंन्त्री की पंक्ति पुकार रही हो।।3।।।                चूल्हा औ चौका कै बातु पुरानि वहव अबु काँध से काँध मिलावै।।                       स्कूलनु पाठ कही या सिपाहिनु अब कप्तानु कै कुरसी सजावै।।                    पीयम सीयम या कही डीयम खेतु कौनु महिला ना सुहावै।।                                  भाखत चंचल वक्त कै बात पुरूष अबु महिलनु पाछेनु धावै।।4।।                      आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचलः ओमनगर, सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी,अमेठी ,उ.प्र.।। मोबाइल..8853521398,9125519009।।

एस के कपूर श्री हंस

*।।वरिष्ठ नागरिक।।*
*।।बस चलते रहना ही जिंदगी है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
अभी  बहुत दूर जाना  और
जिंदगी      अभी  बाकी  है।
जोशो ओ  जनून बने  जाम
ओ जिंदादिली बने साकी है।।
हर पल कुछ  करते  सोचते
रहो काम कोई     नया  तुम।
ठहर  गये   जिस   पल   तो
बनेगी ज़िंदगी   बैसाखी   है।।
2
यह अंत नहीं            दूसरी
पारी   की       शुरुआत   है।
आप यूँ  खाली    नहीं लिये
अनुभव  की      सौगात  हैं।।
जो  अनसुलझी रही पहेली
वक्त मिला    हल करने का।
अपनी रुचियां   पूरी  करने
की तो आज  हर   बात   है।।
3
सुख मय जीवन  जीने  का
हर    पल आपके पास   है।
भटक गये जो  रिश्ते   उन्हें
संवारने की   अब आस  है।।
तेजी से बदल  रही  दुनिया
कदम मिलाकर  चलें  साथ।
इस नाजुक  दौर में    ध्यान
रहे  स्वास्थ्य का     खास है।।
4
नजर घुमा कर देखोअनेक
काम    घर में ही करने को।
लिखो पढ़ो देखो खेलो इस
अवसाद को अब  हरने को।।
बहुत कुछ  नया  अब   भी 
जान सकते हैं  इस उम्र  में।
ये  सोचो कि अभी सीखना
और वक्त नहीं  डरने     को।।

*रचयिता।।एस के कपूर"श्री हंस"*
*।।बरेली।।*


*।।रचना शीर्षक।।*
*।।तेरे मीठे बोल ही संबको याद*
*आयेंगें।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
चार दिन की    जिन्दगी   फिर 
अंधेरा     पाख    है।
फिर खत्म     कहानी      और 
बचेगा धुंआ राख है।।
अच्छे कर्मों से   ही    यादों  में
रहता    है   आदमी।
तेरे अच्छे   बोल   व्यवहार  से
ही बनती   साख है।।
2
कब किससे कैसे बोलना  यह
मानना बहुत   जरूरी है।
इस बुद्धि कौशल   कला    को
जानना बहुत  जरूरी है।।
शब्द तीर हैं कमान हैं    देते  हैं
घाव    गहरा        बहुत।
हर स्तिथी   को   सही      सही
पहचानना बहुत जरूरी है।।
3
साथ समय     समर्पण   दीजिए 
आप बदले में  यही पायेंगे।
जैसा बीज डालेंगें धरती में फल
वैसा उगा कर लायेंगे।।
सम्मान पाने को   सम्मान   देना
उतना ही   है    जरूरी।
बस तेरे   मीठे    बोल    ही सदा 
संबको    याद आयेंगें।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।        9897071046
                      8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-6
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
स्थिर जन जग बोलहिं कैसे?
चलहिं-फिरहिं-बैठहिं वइ कैसे??
      सुनि अर्जुन कहँ,कह भगवाना।
       स्थित-प्रज्ञ-पुरुष-पहिचाना।।
होय तबहिं जब त्यागि बासना।
आत्म-तुष्ट-नर-बिगत कामना।।
       राग-क्रोध-भय-स्पृह-नासा।
       स्थिर-बुधि जन रखु बिस्वासा।।
निंदा-स्तुति-उपरि सुभाऊ।
बिगत द्वेष,स्थिर-बुधि पाऊ।।
       स्थिर बुद्धि कच्छपय नाई।
        सकल अंग जिसु सिमट लखाई।।
बिषय-भोग,इंद्रिय-सुख रहिता।
अंग-प्रत्यंग जदपि नर सहिता।।
       रागहिं निबृत-प्रबृत-परमातम।
       होवहि स्थित-प्रज्ञ महातम।।
सुनहु,पार्थ स्थिर-बुधि सोई।
मम महिमा जाकर रुचि होई।।
     विषयासक्ति कामना मूला।
     बिघ्न कामना,क्रोधइ सूला।।
क्रोधहि देइ जनम मुढ़-भावा।
भ्रमित रहहि मन मूढ़-सुभावा।।
      मूढ़-भ्रमित मन बुद्धिहिं नासा।
      ग्यान-अभाव न श्रेयहिं आसा।।
दोहा-पर,जे नर अंतःकरण,रहही तासु अधीन।
        निर्मल हृदयहिं सकल सुख,लहहि उवहि अबिछीन।।
        अस प्रमुदित चित-मनइ नर,लहहि परम सुख जानु।
         सुनहु पार्थ, बुधि-स्थिरहि,यहि जग होय महानु ।।
                            डॉ0हरि नाथ मिश्र
                             9919446372       क्रमशः.......

नूतन लाल साहू

अभिलाषा

क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
निश्चित है इस जग से जाना
मन की अभिलाषा बाकी ही रह गया
चलता किंतु रहा जीवन भर
रो रो करके पछताता हूं
सुनहरा अवसर गवां बैठा
बीता अवसर क्या आयेगा
मन जीवन भर पछताएगा
कैसे पूर्ण होगी मन की अभिलाषा
मैं जीवन में कुछ कर न सका
चलता किंतु रहा जीवन भर
झुलस गया तन
झुलस गया मन
भूला सभी उल्लास मैं
किसको सुनाऊं, मैं अपना दुःख
सभी दुःखी है इस संसार में
मन की अभिलाषा बाकी ही रह गया
चलता किंतु रहा जीवन भर
उठते उठते हर दिन सोचता हूं
दिन में होगी कुछ बात नईं
पर हर दिन की तरह
लो दिन बीता, लो रात गई
संघर्ष में टूटा हुआ
दुर्भाग्य से लूटा हुआ
भटका हुआ संसार में
कितना अकेला हूं,आज मैं
क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
निश्चित है इस जग से जाना
मन की अभिलाषा बाकी ही रह गया
चलता किंतु रहा जीवन भर

नूतन लाल साहू

मन्शा शुक्ला

परम पावन मंच का सादर नमन
              सुप्रभात
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

सुमिरन  करूँ  वीर  हनुमाना।
तजि के मन के सब अभिमाना।।
विद्या   वुद्धि   ज्ञान   प्रदाता।
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता।।

विनय करूँ  उर धरि विश्वासा।
पूरण कीजै प्रभु  मन आशा।।
रोग दोष भव त्रास मिटाओं।
अभय भाव सदभाव बढ़ाओं।।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
*कागा*
-----------------------------
कागा का संदेश है, अतिथि आगमन आज।
पूज्य अतिथि हो जहाँ, एकछत्र  हो राज।
एकछत्र हो राज , सनातन धर्म बताता।
सबरी के घर राम , भाव यह रचे विधाता।
कह स्वतंत्र यह बात, करो सत्कार सुहागा।
रचो नए पकवान ,  खिलाओ कहता कागा।।

कागा आते श्राद्ध पर, पितृ स्वरूप अवतार।
श्यामल इनका रूप है, कर्कश वाणी सार।
कर्कश वाणी सार , सुनो मन ध्यान लगाए।
कोयल की आवाज, मधुर अति मन हर्षाए।
कह स्वतंत्र यह बात, टूटता कच्चा धागा।
अद्भुत अनुपम योग, बताए सबसे कागा।।

कागा पक्षी देखता, एक आँख से दूर।
रामायण में है लिखा, भावपूर्ण दस्तूर।
भावपूर्ण दस्तूर , सतत् वह उड़ता जाये।
लखन चलाए तीर , भाग वह प्राण बचाए।
कह स्वतंत्र यह बात, क्रोध का कोप अभागा।
छलिया धरकर रूप, फिरे यह तब से कागा।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*03.07.2021*

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल

कितने अजब ये आज के दस्तूर हो गये
कुछ बेहुनर से लोग भी मशहूर हो गये 

जो फूल हमने सूँघ के फेंके ज़मीन पर
कुछ लोग उनको बीन के मगरूर  हो गये 

हमने ख़ुशी से जाम उठाया नहीं मगर
उसने नज़र मिलाई तो मजबूर हो गये 

उस हुस्ने-बेपनाह के आलम को देखकर
होश-ओ-ख़िरद से हम भी बहुत दूर हो गये 

इल्ज़ाम उनपे आये न हमको ये सोचकर
नाकरदा  से गुनाह भी मंज़ूर हो गये

रौशन थी जिनसे चाँद सितारों की अंजुमन
वो ज़ाविये नज़र के सभी चूर हो गये

हर दौर में ही हश्र हमारा यही हुआ
हर बार हमीं देखिये मंसूर हो गये

*साग़र* किसी ने प्यार से देखा है इस कदर
शिकवे गिले जो दिल में थे काफूर हो गये 

विनय साग़र जायसवाल 
3/5/2008
मफऊल फायलात मुफाईल फायलुन

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
  🙏किया मेरे मन को भाव विभोर🙏 
1
  जीवन-रूपी इस नैया को,पार लगाना है,
  समझ सबके आ गई,ईश्वर ही है सिरमोर।
  कोरोना को हराने में जो कर रहे मुकाबला,
 उन वीरों ने किया मेरे मन को भाव विभोर।।
2
  पग-पग पर खतरा,जान नहीं पाया कोई,
  अपने घरों में ही रहो,मंच गया भारी शोर।
  कर्पयु क्षेत्र में बिना परवाह के दे रहे सेवा,
 उन वीरों ने किया मेरे मन को भाव विभोर।।
3
  दान वीरों ने अपना-अपना धर्म निभाया,
  कोई नहीं रहे भूखा,इस पर ही दिया जोर।
  घर परिवार छोड़,लगे जो जान बचाने में,
 उन वीरों ने किया मेरे मन को भाव विभोर।।
4
  ऋषि परम्परा अपनाने पर देना होगा ध्यान,
 शुद्ध खान-पान से ही फैलेगी,खुशी चहुं ओर।
 आन-बान-शान की रक्षा में लगे जो सेनानी,
 उन वीरों ने किया मेरे मन को भाव विभोर।।
5
  कर जोड़ निवेदन 'राजस्थानी' सबसे करता,
 आशा बनाये रखो प्यारे,आयेगी सुखद भोर।
 सेवा की अखंड ज्योति जलाई जिसने भी,
 उन वीरों ने किया मेरे मन को भाव विभोर।।
©®
    रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दोहे
जब तक बालक-रूप है,रहता नहीं विकार।
उम्र  बढ़े  तो  आ बसे, माया  का  संसार।।

नीले-पीले-बैगनी, सब  रँग  मिले  पतंग।
उड़े गगन की छोर तक,पवन-वेग-मन संग।।

प्रियतम के सँग जब बँधे,इस जीवन की डोर।
हो जाता हिय प्रियतमा, अति आनंद विभोर।।

दूर क्षितिज के पार है, बसा पिया का देश।
कब होगा उनसे मिलन , पता नहीं किस वेश??

मिलता  है आनंद  तब, जब  हो  मन  में  तोष।
संत हृदय अति विमल-शुचि,करता कभी न रोष।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                    9919446372

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर

शीर्षक ---पल का परिवर्तन--

सिर्फ एक पल ही खुशियां
जीवन में प्राणि समझता है,परमेश्वर स्वयं सिद्ध परमेश्वर व्यख्याता।।
सिर्फ एक पल की खुशियों के
लिये मानव जाने क्या क्या कर
जाता नही मिलती तो दोष सारा
समय भाग्य ईश्वर मढ़ता।।
सिर्फ एक पल में ही शून्य को
जीवन मील जाता तो कही सिर्फ
एक पल में ही जीवन जाता।।
सिर्फ एक पल ही बहुत है युग
परिवर्तन को सिर्फ एक पल में ही
विशेष ,भाग्य भगवान आता।।
पल प्रहर चलती दुनियां पल 
प्रहर से ही प्रभात संध्या गति
चाल का नाता।।
नित्य गतिमान पल प्रहर 
सिर्फ एक पल ही वर्तमान का
स्वर्णिम इतिहास का निर्माता।।
सिर्फ एक पल में ही बदल जाता
समय भाग्य पुरुषार्थ युग काल
जाता।।
जय और पराजय के मध्य सिर्फ
एक पल ही आता युग को पराक्रम
पुरुषार्थ का मतलब बतलाता।।
आत्मा की परम यात्रा परमात्मा
पहचान, युग का सिर्फ एक पल में
परिवर्तित वर्तमान बन जाता।।
सिर्फ एक पल ही ऐसा आता सुख
दुख का दर्पण कहलाता सिर्फ एक
पल राजा को रंक ,रंक को राजा बनाता।।
सिर्फ एक पल में ही हद हस्ती की
कस्ती का मानव समंदर की गहराई
लहरों में  खो जाता।।
सिर्फ एक पल ही विशेष प्राणि
तोड़ता उद्देश्य पथ के सारे अवरोध
अग्नि पथ से निकल उउद्देश्यो के
पथ का विजेता कहलाता।।
प्राणि की जो भी हो काया
सिर्फ एक पल की प्रतीक्षा
जब युग उत्कर्ष हर्ष का बन
जाए निर्माता।।
अतीत के पन्नो की चमक
वर्तमान का चंद्र सूरज सिर्फ
एक पल की विरासत से धन्य
धीर मुस्कुराता।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर

डॉक्टर डे विशेष---
शीर्षक-डॉक्टर भगवान--

ईश्वर घट घट में रहता 
हर मानव ईश्वर का प्रतिनिधि
कर्मो से देव दानव कहलाता।।
प्राणि ही प्राणि का भक्ष्क
प्राणि ही प्राणि का रक्षक
प्राणि प्राण का आत्म भाव
ईश्वर अंश कहलाता।।
बैद्य सुखेन ईश्वर स्वयं
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान
राम को शोक से मुक्त कराता।।
मंथन हुआ समुन्द्र का महिमा
महत्व नौ रत्नों की स्वास्थ देवता
धन्वंतरि  बतलाता।।
स्वास्थ ही धन संपदा स्वस्थ 
प्राणि प्राण ही सम्पन्न महान
स्वास्थ के रक्षक श्वेत शांति
परिधान डॉक्टर कहलाता।।
वैद्य डॉक्टर मानव मानवता के
भगवान बीमारी से लड़ते
प्राणि की आशा विश्वाश।।
जीवन के कठिन दौर दर्द
एकाकी पन में आशा का
सांचार।।
जाने कितने अवसर आतें
डॉक्टर वैद्य भगवान साक्षात
 युद्ध का मैदान देश रक्षा में लड़ते जवान डॉक्टर बैद्य घायल जवान की रक्षा में स्वयं जीवन का लगा देते दांव।।
जब जब राष्ट्र पर आपदा विभीषिका
कहर का घूमता काल वैद्य डॉक्टर
आगे आते जैसे लडते सीमा पर
राष्ट्र गौरव गरिमा के जवान।।
संक्रमण संक्रामक काल वैद्य
डॉक्टर जन जन के कवच ढाल
स्वय जीवन को कर्तव्य बलि बेदी
पर न्यवछावर कर निःस्वार्थ।।
जाने कितने ही इतिहास वैद्य डॉक्टर
के नाम  आज वर्तमान।।
कोरोना संक्रमण में घर मे कैद
हो गया  मानव जाने कितने
डॉक्टर वैद्य ने एक एक प्राण 
बचाने को आहुति दे दिए अपने
प्राण।।
मानव तुम मानवता के 
अभिमान कोरोना संक्रमण
काल में हुये शहीद डॉक्टर वैद्य
को कृतज्ञ राष्ट्र भारत के जन जन
की श्रद्धा की अंजली का नमन
प्रणाम।।
शांति काल या युद्ध का मैदान
संक्रमण काल कहर दहसत हो
चाहे भीषणं विभीषिका चाहे
हो जो भी समय काल ,काल से लड़ते
डॉक्टर मानवता के भाग्य भगवान।।
उत्तर दखिण युग का चाहे कोई कोना
सीमा हो दायित्व कर्तव्य बोध मर मिटते डॉक्टर वैद्य युग की महिमा
गरिमा गौरव गान।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश

रामकेश एम यादव

डॉक्टर!

थकते नहीं ये रुकते नहीं
मौत से लड़ते हैं।
बाजी लगाकर जान की
ये निदान करते हैं।

ईश्वर के बाद हम डॉक्टर को 
याद करते हैं।
इस महामारी में उनका 
धन्यवाद करते हैं।

तारीफ में इनके शब्द तो
बेहद कम पड़ रहे।
कितने दिए ये जान
मगर आज भी लड़ रहे।

झुकता है ये मेरा शीश
ये हमारे लिए जी रहे।
सारे सुखों को त्यागकर
हमारे जख्म सी रहे।

दुनिया में कोई और नहीं
जो हो इनके समान।
विश्वास के साथ कह रहे 
ये धरती के भगवान।

रामकेश एम यादव (कवि,साहित्यकार),मुंबई

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.

           *हाइकु*
                
    
            पर्यावरण
            बढ़ता प्रदूषण
            जतन  करे ।
        🌱🌱🌱🌱🌱
    
             धरती सूखी
            ढूँढते हरियाली
              अब न चैन ।
         🌴🌴🌴🌴🌴
   
             पेड़ न काटे
           दाता यह सर्वस्व
              समझें बात ।
         🌳🌳🌳🌳🌳

           अब की वर्षा
          हो चहुँ ओर नीर 
            भरे तालाब ।
        🌧️🌧️🌧️🌧️🌧️

            मन भावन
         श्रावण के हो झूलें
             वृषा की बूंदें ।
        💧💧💦💧💧

           प्रकृति नाचें
           मन मयूर बन
           आसमां चूमें  ।
      🦚🦚🦚🦚🦚

           पौधारोपण   
          बहुत  जरूरत
           जीवन साथी  ।
       🌲🌲🌲🌲🌲
         
              अपनापन
         खिले खुशी के फूल
             कर दिखाओ ।
          🌷🌷🌷🌷🌷
          🌺🌺🌺🌺🌺

              शुभ कर्मों से
          संस्कृति की रक्षा में    
             कदम बढ़े   ।  
       🌾🌾🌾🌾🌾  
         🕉🕉🕉🕉🕉       
       ©®
         रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-5
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
सुभ अरु असुभयइ फल कै भेदा।
निष्कामी नहिं रखहिं बिभेदा।।
      जे जन मन रह भोगासक्ती।
      अस जन बुधि नहिं निस्चय-सक्ती।।
अस्तु,होहु निष्कामी अर्जुन।
सुख-दुख-द्वंद्व तजहु अस दुर्गुन।।
      आत्मपरायन होवहु पारथ।
       लरहु धरम-जुधि बिनु कछु स्वारथ।।
पाइ जलासय भारी जग नर।
तजहिं सरोवर लघु तें लघुतर।।
       ब्रह्मानंद क पाइ अनंदा।
       बेद कहहिं नहिं नंदइ नंदा।
तव अधिकार कर्म बस होवै।
इच्छु-कर्म-फल नर जग खोवै।।
      तजि आसक्ती सुनहु धनंजय।
      करहु कर्म बिनु मन रखि संसय।।
भाव-समत्वयि,सिद्धि-असिद्धी।
करहु जुद्ध तुम्ह निस्चय बुद्धी।।
      ग्यानी जन जुड़ि बल-बुधि-जोगा।
      जन्म-बन्धनहिं तजि फल-भोगा।।
भइ निर्दोष सकल जग माहीं।
अमृत निहित परम पद पाहीं।।
       मिलइ बिराग तुमहिं हे अर्जुन।
       मोह- दलदलइ तिर तव बुधि सुन।।
दोहा-परमातम मा जबहिं सुन,स्थिर हो बुधि तोर।
        जोग-समत्वइ लभहु तुम्ह,नहिं संसय अह थोर।।
        किसुन-बचन अस सुनि कहेउ,अर्जुन परम बिनीत।
        स्थिर-बुधि जन कस अहहिं,हे केसव मम मीत ??
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372      क्रमशः.........

नूतन लाल साहू

मेरा परिचय

मिट्टी का तन,मस्ती का मन
मेरे पथ में है कांटे ही कांटे
आसान नही लगता है मुझे
फूलों की दुनिया को पाना
क्षण भर का है मेरा जीवन
है यह मेरा परिचय
यह दुनिया है बहुत निराली
जहां योगी भी ढग जाते है
गुरु ज्ञानी धोखा खाते है
आसान नही लगता
सपने को सच करना
अब तक महसूस ही नही हुआ
मेरे हृदय में शांति व्यापक
क्षण भर का है मेरा जीवन
है यह मेरा परिचय
बहुत मिलता है मुझे
मेरे पथ में कांटे बोने वाले
पर दिल हल्का करने के वास्ते
कुछ कह लेता हूं,कुछ लिख लेता हूं
मुझे कोई गिला शिकवा नहीं है
क्योंकि वे मेरे आत्मविश्वास को
हर पल जगाता है
काल रात्रि के अंधकार में
रास्ता वही सुझाता है
संघर्ष का और
निरंतर संघर्ष का
मिट्टी का तन,मस्ती का मन
मेरे पथ में है कांटे ही कांटे
आसान नहीं लगता है मुझे
फूलों की दुनिया को पाना
क्षण भर का है मेरा जीवन
है यह मेरा परिचय

नूतन लाल साहू

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल -(हिन्दी में)

तुमने जो निशिदिन आँखों में आकर अनुराग बसाये हैं 
हम रंग बिरंगे फूल सभी उर-उपवन के भर लाये हैं

हर एक निशा में भर दूँगा सूरज की अरुणिम लाली को 
बाँहों में आकर तो देखो कितने आलोक समाये हैं

प्रिय साथ तुम्हारा मिलने से हर रस्ता ही आसान हुआ
हम विहगों जैसा पंखों में अपने विश्वास जगाये हैं 

जब -जब पूनम की रातों में तुझसे मिलने की हूक उठी
तेरे स्वागत में तब हमने अगणित उर-दीप जलाये हैं 

दिन रात छलकते हैं दृग में तेरे यौवन के मस्त कलश 
तू प्यास बुझा दे अंतस की जन्मों से आस लगाये हैं 

कैसी मधुशाला क्या हाला तेरे मदमाते नयनों से 
हम पी पीकर मदमस्त हुये अग -जग सब कुछ बिसराये हैं 

उस पल क्या मन पर बीत गयी मत पूछो *साग़र* तुम हमसे
तुमने जब जब व्याकुल रातों में गीत विरह के गाये हैं 

🖋विनय साग़र जायसवाल

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत(16/14)
डाल-पात सब झूम रहे हैं,
धरती पर हरियाली है।
नाच रहे हैं मोर छबीले-
मस्त घटा घन काली है।।

हरी-भरी सीवानें झूमें,
कृषक झूमते फसलें देख।
ताल-तलैया-नदी झूमती,
लख, गगन-घन काली रेख।
धरती का हर कोना झूमें-
अन्न भरी हर थाली है।।
     मस्त घटा घन काली है।।

जब भी बहे पवन पुरुवाई,
काले बादल छाते हैं।
छोटी-छोटी रिम-झिम बूँदें,
लखकर मन हर्षाते हैं।
मगन-मुदित सब नाचें-गाएँ-
सुषमा प्रकृति निराली है।।
      मस्त घटा घन काली है।।

चपला-चमक,गरज घन सुनकर,
विरहन का मन चिहुँक उठे।
मधुर मिलन की तड़प-अगन से,
जियरा उसका झुलस उठे।
फिर वह नाचे भीग-भीग कर-
लगती वह मतवाली है।।
      मस्त घटा घन काली है।।

हरियाली से सुख है मिलता,
वातावरण स्वस्थ रहता।
 बाग-बगीचे हरे न रहते,
यदि जल इधर-उधर बहता।
बाग-बगीचा रखे हरा जो-
सच्चा वह ही माली है।।
    मस्त घटा घन काली है।।
           डॉ0हरि नाथ मिश्र
              9919446372

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

सिर्फ एक पल......................

वक़्त का सदुपयोग तक़दीर बदल देता है।
वक़्त का दुरुपयोग तस्वीर बदल देता है।।

पहचान करना वक़्त की , मामूली बात नही;
वक़्त पर सही काम , परिणाम बदल देता है।।

घर , समाज , देश मे जरूरी है आपसी सहयोग;
आपसी मेल जीवन का रंगत बदल देता है।।

भेदभाव और नफरत है बहुत अजीब बीमारी;
इनके असर अच्छी तस्वीर बदल देता है।।

रचनात्मक विरोध है , लोकतंत्र में बहुत जरूरी;
अनावश्यक विरोध , हर प्रगति बदल देता है।।

राष्ट्रहित को रखें हमलोग , हमेशा सबसे ऊपर;
व्यक्तिगत स्वार्थ मुल्क की छवि बदल देता है।।

आपस में मिल - जुलकर रहें हमलोग "आनंद";
सिर्फ एक पल में सही पहल सब बदल देता है।।

----------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

निशा अतुल्य

आज की एक रचना
काव्य रंगोली मंच को समर्पित 
🙏🏻

रूठो न ,रूठो न हमसे सनम
जान हमारी जाती है ।
चाहे ले लो,ले लो हमसे कसम 
रूठो न,रूठो न हमसे सनम ।।

संग में रहना साथ निभाना
मेरे सजनवा भूल न जाना
मर जाऊंगी बिन तेरे मैं
मुझसे किया जो वादा निभाना
चलो सँग में मेरे सनम ।

चाहे ले लो,ले लो हमसे कसम 
रूठो न रूठो न हमसे सनम ।।

मेरा हर पल तेरा ही है 
निंदिया तेरी, सपने तेरे 
मिलने की जो चाह जगे तो
छोड़ आऊं सब सांझ सवेरे 
करना न मुझ को अलग ।

चाहे ले लो,ले लो हमसे कसम 
रूठो न रूठो न हमसे सनम ।।
 
जग बेरी बन जाएगा उस दिन
छोड़ के जाएगा तू जिस दिन
लाज की मारी कुछ न बोलूं
दूँगी तोड फिर सारे बंधन 
उड़ जाऊंगी तोड के पिंजरा
हाथ नहीं मैं फिर आऊंगी
ढूंढना,मुझे न सनम ।

चाहे ले लो,ले लो हमसे कसम 
रूठो न रूठो न हमसे सनम ।।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"

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