आलोक मिश्र 'मुकुन्द'*
दोहे विषय - खाकी
साजन, सजनी से सदा, रहता है ज्यों दूर।
विरह पीर जलती रही, खाकी में मजबूर।।
खाकी को डसते सदा, राजनीति के नाग।
इसीलिए देखो बहुत, लगे हुए हैं दाग।।
नींद बेच खाकी सदा, खड़ी देश रक्षार्थ।
कलियुग में इससे बड़ा, नहीं अन्य परमार्थ।।
देश भक्ति पथ पर सदा, नहीं स्वयं को रोक।
रोजी, रोजा से बड़ी, होती है आलोक।।
खाकी से सबकी जुड़ी, अपनी- अपनी आस।
पर कोई रखता नहीं, अंदर उर विश्वास।।
व्यथा पुलिस की देखिए, वेतन मिलता अल्प।
अंदर शोषण हो रहा, बदलो काया कल्प।।
भारत में जयचंद जो, खाकी उनकी काल।
कफन शीश धर चल दिए, भारत माँ के लाल।।
व्यक्त करे संवेदना, अश्रु दिया है रोक।
देख पुलिस की उर व्यथा, दुखी हुआ आलोक।।
*✒ आलोक मिश्र 'मुकुन्द'*
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