कब तक तसव्वुर से बहलाएँ खुद को।
कभी बुझाए कभी जलाएं खुद को।
आज तुमको भुलाने की कसम खाई है।
चलो फिर आज आजमाएं खुद को।
तुम्हें तलाशने से जो मिले फुर्सत।
तब कहीं जाकर नजर आएं खुद को।
गुजरता रात का सफर सिसकिंयों के तले।
रख के तकिया मुंह पर खुद से छिपाएं खुद को ।
सौ सवाल आते हैं अमित तुम को लेकर।
तुम ही बताओ अब क्या बताएं खुद को।
@ अमित शुक्ला @
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
अमित शुक्ल कब तक तसव्वुर से बहलाएँ खुद को।
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