बलराम सिंह पूर्व प्रवक्ता बी बी एल सी इंटर कालेज खमरिया पँ0 खीरी धर्म एवम अध्यात्म शिक्षक व्याख्याता
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी।
जे पर दूषन भूषन धारी।।
निज कबित्त केहि लाग न नीका।
सरस होउ अथवा अति फीका।।
जे पर भनित सुनत हरषाहीं।
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।
।श्रीरामचरितमानस।
गो0जी कहते हैं कि जोक्रूर,कुटिल और बुरे विचार वाले हैं और जो पराये दोषों को आभूषण रूप से धारण करने वाले हैं, वे ही मेरी इस कविता पर हँसेंगे।स्वरचित कविता किसको अच्छी नहीं लगती है चाहे वह रस युक्त हो अथवा फीकी हो।जो दूसरों की कविता सुनकर प्रसन्न होते हैं ऐसे श्रेष्ठ लोग संसार में बहुत नहीं हैं।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
भावार्थः---
यहाँ गो0जी ने उन चार प्रकार के लोगों को कहा है जो उनकी इस कविता का उपहास करेंगे।
1--कूर अर्थात क्रूर अथवा दयारहित, दुष्ट व दुर्बुद्धि।
2--कुटिल अर्थात कपटी स्वभाव वाले।
3--कुविचारी अर्थात बुरे विचार व समझ वाले।
4--दूसरों के दोषों को देखने वाले व उन दोषों को आभूषण के रूप में ग्रहण कर धारण करने वाले।
आज भी समाज में बहुत से लोग केवल दूसरों की बात का खण्डन ही करते रहते हैं और वे श्रीरामचरितमानस में विभिन्न विषयों पर अकारण ही कुतर्क करते रहते हैं।वास्तव में गुणों और दोषों की वास्तविक परख तो सज्जनों को ही होती है और वे भौरों की तरह केवल सुगन्धित पुष्पों का ही चयन करते हैं।दुर्जन लोग तो मक्खियों की तरह सड़ी गली दुर्गन्धित वस्तुओं को ही ढूँढते रहते हैं।इस श्रीरामचरितमानस जैसे सद्गुणों से युक्त महाकाव्य में दुष्टजन तो उसी प्रकार दोष खोजने का प्रयास करते हैं जैसे मणियों में भी चींटी छिद्र खोजने का प्रयास करे।गो0जी पुनः कहते हैं कि स्वरचित कविता तो सभी को प्रिय लगती है जैसे अपना बनाया हुआ भोजन सभी को स्वादिष्ट ही लगता है।दोहावली में गो0 जी कहते हैं---
तुलसी अपनो आचरन भलो न लागत कासु।
तेहि न बसात जो खात नित लहसुनहू को बास।।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो दूसरों की कविता अथवा वाणी सुनकर प्रसन्न होते हैं, वे ही श्रेष्ठ व सज्जन पुरुष हैं।लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें