डाॅ0 महालक्ष्मी सक्सेना 'मेधा' मैनपुरी धरा पुकारे सुन रे बादल, कब तुम प्यास बुझाओगे।

डाॅ0 महालक्ष्मी सक्सेना 'मेधा' मैनपुरी


गीत-
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धरा पुकारे सुन रे बादल, कब तुम प्यास बुझाओगे।
तरस रही हूँ बूँद-बूँद को कब तुम जल बरसाओगे।।


नदियाँ, नाले और समुंदर लगते सारे छोटे हैं।
मेरी छाती से जल लेने के पड़ते अब टोटे हैं।
विकल हुआ जग वर्षा लेकर कब तक तुम आ पाओगे।।
तरस रही हूँ बूँद-बूँद को कब तुम जल बरसाओगे।।


सारी सृष्टि सृजन कर रही मैं सबकी महतारी बन।
कैसे सबको प्यासा रख लूँ मन से इतना भारी बन।
मैं प्यासी बिरहन हूँ कब तुम प्रेम सुधा पिलवाओगे।।
तरस रही हूँ बूँद-बूँद को कब तुम जल बरसाओगे।।


प्रकृति का हर जीव-जंतु और हरियाली सब तरस रहीं।
तुम ना बरसे एक तुम्हारे लिए आँख सब बरस रहीं।
आँखो के अश्कों में कब तुम जल धारा मिलवाओगे ।।
तरस रही हूँ बूँद-बूँद को कब तुम जल बरसाओगे।।


*-डाॅ0 महालक्ष्मी सक्सेना 'मेधा' मैनपुरी*


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