दर्पण:महेश राजा/
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बस छूटने ही वाली थी।दरवाजे की तरफ से अजीब सा शोर उठा,जैसे कोई कुत्ता हकाल रहा हो।परेशानी और उत्सुकता के मिले जुले भाव लिये मैंने उस ओर देखा तो पता चला कोई बूढ़ा व्यक्ति है,जो शहर जाना चाह रहा था।वह गिडगिडा रहा था,'"-तोर पांव परथ ऊं बाबू.मोला रायपुर ले चल।मैंगरीब टिकीस के पैसा ला कहां लेलानहूँ।" "उसका शरीर कांँप रहा था।
-"अरे चल चल।मुफ्त में कौन शहर ले जायेगा।चल उतर।तेरे बाप की गाड़ी नहीं है।कंडक्टर की जुबान कैँची की तरह चल रही थी।"।किसी गाड़ी के नीचे आजा,शहर क्या सीधे ऊपर पहुंच जायेगा."।
एक जोरदार ठहाका गुंँज उठा।
एक सज्जन जिन्हें ड्यूटी पहुंँचने के लिये देर हो रही थी बोले,-"इनका तो रोज का है।इनके कारण हमारा समय मत खराब करो।निकालो बाहर"।
एक अन्य साहब ने चश्मे के भीतर से कहा,-"और क्या।धक्के मार कर गिरा दो।तुम भी उससे ऐसे बात कर रहे हो.जैसे वह भिखारी न हो कोई राजा हो।"
और सचमुच।!एक तरह से उसे धक्के मार कर ही उतारा गया।यात्रियों ने राहत की सांँस ली।डा्ईवर ने मनपसंद गाना लगाया।बस गंतव्य की ओर चल पड़ी।
मेरी सर्विस शहर में थी।रोज बस या ट्रेन से अपडाउन करता था।मैंनेअपने कान और आंँखे बंँद ली थी।नहीं तो और भी जाने क्या क्या सुनना पडता?
पर साथ ही पिछले सप्ताह की एक घटना याद हो आयी।इसी बस में एक सज्जन जल्दबाजी में चढ़े।बाद में जनाब को याद आया कि बटुआ तो वे घर पर ही भूल आये है।।मुझे अच्छे से याद है,चार चार लोग आगे बढ़े उनकी मदद करने को,उनकी टिकीट कटाने को।अंँत में कंडक्टर ने स्वयं,- ये हमारे रोज के ग्राहक है।कल ले लूंगा।" कह कर अपने रिस्क पर उन्हें शहर ले जाने को तैयार हो गये।
सोचना बंद कर एक बार पीछे मूड़कर देखता हूँ।।सभी अबतक वही
बात कर रहे थे।जल्दी से आगे की तरफ नजर धूमा लेता हूँ।
तभी मेरी नजर सामने की तरफ लगे,दर्पण पर पडी।उसमें मुझे अन्य लोगों के साथ अपना भी चेहरा साफ नजर आया। धबरा कर मैंने अपनी आंखेँ बंद कर ली।
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*महेश राजा*,वसंत 51'कालेज रोड।महासमुंद।छत्तीसगढ़
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