कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
विधाः दोहा छन्दः मात्रिक
शीर्षकः रखो लाज हर चीर
नमक हरामी से डरे , भरी सभा में भीष्म।
दुश्शासन ने हाथ से , खींच रहा था जिस्म।।१।।
बेची ख़ुद की इज्जतें , पति दुश्मन के हाथ।
बलशाली नामर्द थे , मिला मीत का साथ।।२।।
सत्ता के बन लालची , बन अंधा नृप मौन।
व्यभिचारी कामी खली ,लाज बचाए कौन।।३।।
सब गुरुता कृप द्रोण का ,बल वैभव अस्तित्व।
नतमस्तक था नमक का, गुनहगार व्यक्तित्व।।४।।
पड़ा कुसंगति दानवीर , ठोक रहा था जाँघ।
बुला रहा था द्रौपदी , मर्यादा को लाँघ।।५।।
याज्ञसेनि थी चीखती , दुश्शासन तज चीर।
बचा रही निज अस्मिता ,आकुल सहती पीर।।६।।
शिथिल पड़ा गांडीव धनु,लानत था दिव्यास्त्र।
सत्तर गजबल व्यर्थ था ,धर्मराज सब शास्त्र।।७।।
लोभ मोह ईर्ष्या कपट, फँसे पाश सब लोग।
राजनीति चौसर तले , खल कामी दुर्योग।।८।।
लानत थी उस शक्ति को,अंधी थी जो भक्ति।
देख रहे सब चीरहरण, भातृप्रेम अनुरक्ति।।९।।
मानवता लज्जि़त हुई ,लखि नारी अपमान।
भरी सभा नैतिक पतन , अट्टहास शैतान।।१०।।
विदुरनीति थी सिसकती , दुष्कर्मी कृत पाप।
सर्वनाश की आहटें , सुनी नार्य अभिशाप।।११।।
नफ़रत थी चारों तरफ़ , जनमानस आक्रोश।
नार्यशक्ति थी लुट रही , सरेआम मदहोश।।१२।।
शील त्याग गुण कर्म सब , चढे़ द्यूत उपहार।
चालबाज़ शकुनि प्रबल , दुर्योधन सरदार।।१३।।
आज न्याय लाचार था , संकट में था सत्य।
क्षमा चुरायी नज़र को , निन्दनीय दुष्कृत्य।।१४।।
था नृशंस खल दास्तां , बलात्कार प्रयास।
रजस्वला थी द्रौपदी , निर्मम खल उपहास।।१५।।
सजल नैन रक्षण स्वयं , माँग दया की भीख।
बुज़दिल कायर कुरुसभा , सुनी न नारी चीख।।१६।।
कैसी थी निर्लज्जता , दरिंदगी दुष्काम।
आज वही तो हो रहा , शीलहरण अविराम।।१७।।
मीत बने भाई समा ,भक्ति प्रीति भगवान।
बढ़ा चीर रख लाज हरि , दे नारी सम्मान।।१८।।
द्वापर हो या कलियुगी , नहीं सोच बदलाव।
कामुक कायर घूमते , हिंसक मन दुर्भाव।।१९।।
सोच घृणित विक्षिप्त नर , फाँसी से निर्भीत।
बना दरिंदा नोंचता , नारी जिश्म पतीत।।२०।।
घूम रहे नित दरिंदे , कीचक बन दुष्काम।
हरदिन लुटती द्रौपदी , अबला बन बदनाम।।२१।।
बदल चुका है समय अब , है नारी निर्भीत।
पढ़ी लिखी सबला प्रखर , अधिकारी निर्मीत।।२२।।
रक्षा खु़द नारी समर्थ , अवरोधक संत्रास।
नहीं चीख होगी श्रवण , कृष्णा का उपहास।।२३।।
महाशक्ति नारी सजग , स्वयं लाज सम्मान।
उन्नत जीवन शिखर पर , कीर्तिफलक अरमान।।२४।।
जहाँ मान न पूज्य हो , नारी देश समाज।
शान्ति सम्पदा मान बिन,बन मरघट बिन ताज़।।२५।।
लोक लाज मानक वतन, घर नारी अभिराम।
सकल देव रनिवास बन , बने गेह सुखधाम।।२६।।
बनो वतन हर पुरुष हरि , रखो लाज हर चीर।
लायी जो तुमको धरा , रक्षक नारी नीर।।२८।।
कवि निकुंज अलिगुंज वन,सुरभित मन आनन्द।
खिले चमन मुस्कान बन , नार्य कुसुम मकरन्द।।२९।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली विधाः दोहा छन्दः मात्रिक शीर्षकः रखो लाज हर चीर
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