*एक नव- गीत*....
अनुवादों के संवादों पर
है अपनों का डर ।।
सड़के नापी
गलियाँ ओटी
पिये चरस गाँजे
पकड़े रहे
पतंग डोर को।
कटे हाथ माँझे
व्यर्थ वाद विवादो पर
हैं प्रयत्न जर्जर ।।
पढ़ा लिखा
हो गया बेवड़ा
आरक्षण से डर
कई हजार
धूल में फेकें
कई फार्म भर कर
गर्म हवा में
नव वादों पर
तन काँपे थरथर ।।
नव विकास की
होड़ लगी है
गिन गिन कर प्यादे
कितने साक्षात्कार
दे डाले
विस्मृत है यादें
भूचालों की
बुनियादों पर
है सपनो का घर ।।
सुशीला जोशी
मुजफ्फरनगर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें