कीर्ति जायसवाल प्रयागराज शीर्षक- शुष्क बेल

कीर्ति जायसवाल
प्रयागराज


शीर्षक- शुष्क बेल
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भू-शय्या पर पड़ी
शुष्क बेल हूँ मूर्च्छित,                
तपोवन में तप करती
अभिलाषा है तेरी।


शून्य माँंग में फूल सजा दे;
कर दे हरी-भरी। 
तू गिर जा मुझ पर बरस-बरस,
मैं खिल जाऊँगी कली-कली।


आगन्तुक फिर आएँगे,           
कुछ खाएँगे; बिखराएँगे 
और आगन्तुक आएँगे 
फिर उन्हें वहन कर जाएँगे।          


सीकर नाद; विहग कलरव;         
शिखी नृत्य; मन गाएगा;              
कब से मैं हूँ तरस रही;
तू कर दे मुझको हरी-भरी।


झुक 'कर' दे उठा ले मुझको;                      
इधर-उधर को दौड़ूँगी।
फूलूँगी कुछ ऐसा मैं
संग तेरा न छोड़ूंगी।


'शिरा' शोभित पुष्प ताज;                         
लय अनुभव लहराऊँगी।                       
अब तो मुझ पर तरस, बरस;
मैं बन बैठूँ हाँ! हरी परी।


-कीर्ति जायसवाल
प्रयागराज


(शब्दार्थ:  सीकर नाद=बूँद की आवाज, शिखी=मोर,  शिरा=सिर, लय=हवा)


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