निशा"अतुल्य"
अपमान
दिनाँक 24 /1 /2020
अजनबी सा लगता है ये जहां मुझे
जहाँ उठती गिरती निगाहे तौलती है मुझे
लगता है कोई खंजर चीर गया जिस्म को मेरे
माँगती है जब जबाब अनगिनत प्रश्नो का करती अपमान मेरी अस्मिता का ।
ये प्रश्न सूचक उठती गिरती निगाहे
जो हैंआत्मीय बहुत करीब दिल के मेरे
अचानक से चीरता उनका कोई प्रश्न
उठता है अस्मिता पर मेरे
झकझोर देता है मुझे।
हिल जाती हूँ सोचती हूँ
होकर विचलित
क्यों जीवन किया समर्पित
ऐसे लोगो के लिए ।
तब याद आता है उपदेश कृष्ण का
न कोई तेरा है ना तू किसी का
उठ, मत भटक अज्ञान के अंधेरे में
उठा शस्त्र और कर निर्णय
अभी इस का ।
कर्म क्षेत्र है बस तेरा
बाकी सभी अजनबी है यहां
ये रिश्ते ये नाते सभी स्वार्थ पूरक हैं
जिनमें कहीं न कहीं
स्वार्थ छुपा है तेरा ।
इस संसार में कर कर्म अपने सभी
बन कर बस अजनबी
रह निर्विकार होगा सार्थक
जीवन तभी तेरा ।
ना मान है तेरा, न कोई अपमान
जो भी है बस मैं हूँ
कर मुझे निमित और हो जा मुक्त
सबसे परे निश्चिंत,
मैं हूँ ना।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
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