राकेश कुमार मिश्रा कविता जिंदगी रात हो गयी

राकेश कुमार मिश्रा


जिंदगी रात हो गयी


कैसे ख्वाबों को रंगता मैं
रात भर
*'लहू'* के सिवा रंग कोई नजर
आता नहीं


दोस्ती करता भी तो मैं 
किससे
उम्र भर साथ कोई 
निभाता नहीं


*'जहर'* भर दिया है , इसकी
बुनियाद में इतना
कि *'दरख़्त'* इस वतन का ,
कद बढ़ाता नहीं


जेहन में पाल रखें हैं मैंने
*'जख्म'* इतने
अपने *'फफोलों'* का हिसाब ,
अब मैं लगाता नहीं


अंधेरा इतना कि जिंदगी 
*'रात'* हो गई
किसी सुबह का *'कोई उजाला'*
याद आता नहीं


आते हैं , जाते हैं , अपनी 
मर्जी से *'गम'*
*'घर आये मेहमान'* को
*'राकेश'* भगाता नहीं।
_*🎊राकेश कुमार मिश्रा🎊*_


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