रचना ममता कानुनगो इंदौर मध्यप्रदेश : *आत्म-अभिव्यक्ति*
कथन औ कथ्य से परे
स्वतंत्रभिव्यक्ति चाहती हूं
बंधन औ बाध्य से परे
निर्बाध मौन को मैं
सांसों में सहेजना चाहती हूं।।
समय गतिमान है
ना रुकता है,ना ही रुकेगा
काल के प्रवाह को
स्वगति देना चाहती हूं
निर्बाध मौन को मैं
सांसों में सहेजना चाहती हूं।।
कल्पित-कपोल रुढ़ियों से
अनचाही परंपराओं से
मुक्त हो नवीन संरचना चाहती हूं
स्वहित हेतू कुछ नियम बदलना चाहती हूं
निर्बाध मौन को मैं
सांसों में सहेजना चाहती हूं।।
अविरल धारा सी
होती रहूं प्रवाहित मैं
होकर समाहित सागर में
थाह उसकी पाना चाहती हूं
सीप का मोती बनकर मैं
स्वयं में सागर समाना चाहती हूं
निर्बाध मौन को मैं
सांसों में सहेजना चाहती हूं।।
शब्द राग से परे
भावनाओं से व्यक्त हो
ना साज हो ना आवाज हो
अपनेपन का स्वच्छंद एहसास हो
निच्छल प्रेम का मैं
गीत गुनगुनाना चाहती हूं
निर्बाध मौन को मैं
सांसों में सहेजना चाहती हूं।।
हर श्वांस और प्रश्वांस में
खुद को ढूंढना चाहती हूं
हर एक स्पंदन में
मैं आत्मानुभूति चाहती हूं
स्वयं को पाकर मैं स्व में खोना चाहती हूं
निर्बाध मौन को मैं
सांसों में सहेजना चाहती हूं।।
स्वरचित: ममता कानुनगो इंदौर मध्यप्रदेश
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