रेखा बोरा लखनऊ
ज़िन्दगी
चाहती हूँ
ज़माने के सारे
बंधन तोड़ कर ,
तुम तक पहुंच जाऊँ !
पर भय लगता है
ये सोचकर ,
कहीं तुम क़ैद हुए,
रीति रिवाज़ों की
उन हदों मैं,
जिन्हें शायद
मैं न तोड़ पाऊँ !
फिर से ये
अकेलापन,
मेरे वज़ूद का
हिस्सा न बन जाए,
पर इससे घबराना कैसा,
अपने सीने के
तूफ़ान को छुपाकर,
कशमकश के
दायरे में क़ैद होकर,
फिर से
जियेंगे उस मौत को,
जिसे लोग ज़िंदगी कहते हैं !
रेखा बोरा,
लखनऊ
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