सन्दीप सरस, बिसवाँ
कतरन
कब तक मैं प्रतिबिम्ब टटोलूँ परछाई के पीछे भागूँ,
अपनापन अपना होता है मुझको अपनापन लौटा दो।
मेरी रीत मुझे प्रिय लगती,तुम्हें तुम्हारे स्वाँग मुबारक।
तुम्हें तुम्हारे उत्सव प्रिय तो मेरा दर्द हमेशा मारक।
कब तक ख़ुशी पराई बाँटू अपने सपने कहाँ सजाऊँ,
अपना घर अपना होता है मेरा घर आँगन लौटा दो।1।
क्योंकर इतना दुखी हृदय पर भार व्यथा का डाला जाए।
नयनों की पलकों से आँसू का न प्रवाह सम्हाला जाए।।
कब तक अपना दर्द सम्हालूँ आँसू पर बंदिशें लगाऊँ,
यदि स्वीकार न हो तो मेरी आहों का अर्चन लौटा दो।।2।
अब वे स्मृतियाँ बिसरा दो जहाँ बहक जाते थे सपने।
अब वे सारे पत्र जला दो जो भी तुम्हें लिखे थे मैंने।
अपने उस रूमाल का कोना जहाँ नाम मेरा लिक्खा था,
दे न सको रूमाल तो मुझको बस उतनी कतरन लौटा दो।3।
सन्दीप सरस, बिसवाँ
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