कभी तो दूर करो मेरी ये शिकायत भी।
करोगे सिर्फ कभी हमपे कुछ इनायत भी।
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कि पाप के हो गए आज तो सभी पेशे।
नहीं बची है जलालत से अब वकालत भी।
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लगाए तुमने थे इल्जाम तो बहुत सारे।
कभी तो सुन लेते उनकी ज़रा हकीकत भी।
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अगर चले गए हम तोड़के कभी तुमको।
नहीं सुनेंगे रही कोई जो शिकायत भी।
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दो बोल प्यार के क्या सुन लिए जरा तुझसे।
कि उसके बाद भली लगती है जलालत भी।
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सुनीता असीम
१६/१/२०२०
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सुनीता असीम आगरा
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