आईना
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यह आईना तो
मेरे जीवन के ऊंचे नीचे
पड़ावों का साक्षी है
ना जाने इसमें कितने
मेरे रूप कैद हैं
इसमें बालपन की छवि ,
उम्र की तरुणाई ,
कजरारी आंखे शरमाई ,
मेरी मुस्कुराहट , मेरी चितवन ,
खिलखिलाहट ,मेरा यौवन कीमत
सब कुछ तो कैद है।
जब अपनी प्यारी यादों को
मैंने आईने से मांगा
तो उसने कुछ ना कहा
अपनी मीठी बीती बातों को
जब मैंने आईने से मांगा
तो उसने कुछ ना सुना
क्योंकि यह आईना
जिसे मैंने ताउम्र निहारा
बचपन से बुढ़ापे तक
वह तो मूक-बधिर है ।
फिर भी आईने ने
मुझसे पहले सा चेहरा मांगा
जिसमें वक्त के साथ
संघर्ष की धूल जम गई थी
धूल झटककर परे जब
मैंने आईने के सामने
पहले सा चेहरा लाया तो
आत्मविश्वास से चमक रहा था
इस मूक-बधिर आईने ने
मुझे खोए हुए , मजबूत इरादों का
मेरा चेहरा दिखला दिया ।
क्योंकि यह आईना
जिसे मैंने ताउम्र निहारा
बचपन से बुढ़ापे तक
वह तो मेरा मित्र है
मैं खुशी से चहक उठी
इस मूक-बधिर ने मुझे
पहले सा चेहरा दिखला दिया
कि आइने ने मुझे फिर
आईना दिखला दिया ।
रचनाकार
विनीता सिंह चौहान
स्वरचित मौलिक
मोबाइल नं 9424512974
पता केसरबाग रोड, लोकमान्य नगर,
इंदौर मध्यप्रदेश
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