स्वतंत्र रचनाः
दिनांकः २८.०२.२०२०
वारः शुक्रवार
विधाः उन्मुक्त छन्द(कविता)
विषयः अमर शहीद चन्द्र शेखर आज़ाद
शीर्षक: श्रद्धाञ्जलि गीत
अति साहस धीरज था भुजबल
भारत माँ का लाल,
इतराती आजाद पूत पा
आँसू भर माँ नैन विशाल।
पराधीन निज मातृभूमि को ,
विचलित था वह बाल ,
कसम लिया लोहा लेने का ,
करने अंग्रेजों को बदहाल ।
कूद पड़ा परवान वतन ,
वह शौर्यवीर आज़ाद,
आतंकित भयभीत ब्रिटिश वह ,
जनरल डायर था बेहाल।
महावीर चल पड़ा अकेला ,
यायावर पथ बलिदान ,
चन्द्र शिखर बन भारत माँ का ,
बस ठान मनसि अरमान।
बना अखाड़ा युद्ध क्षेत्र अब,
अल्फ्रेड पार्क प्रयाग ,
महाप्रलय विकराल रौद्र वह,
आज़ाद हिंद अनुराग।
घबराया जनरल डायर अब ,
घेरा पार्क सैन्य चहुँओर ,
चली गोलियाँ छिप छिप कर ,
ले ओट वृक्ष दूहुँ ओर ।
ठान लिया जीवित नहीं मैं ,
पकड़ा जाऊँगा आज ,
श्वांस चले जबतक जीवन का,
मैं बनूँ वतन शिर साज ।
मरूँ राष्ट्र पर सौ जन्मों तक ,
मम जीवन हो सौभाग्य ,
आज मरोगे खल डायर तुम ,
फँस आज स्वयं दुर्भाग्य।
तोड़ वतन परतंत्र शृंखला ,
दूँ भारत स्वतंत्र उपहार,
कण्ठहार बन खु़द बलि देकर ,
बनूँ मैं भारत माँ शृङ्गार।
रे डायर कायर बुज़दिल तुम,
होओ अब मरने को तैयार ,
यह गोली तेरा महाकाल बन ,
देगी मौत बना उपहार ।
हुआ भयानक वार परस्पर ,
चली गोलियों की बौछार ,
जांबाज़ वतन आज़ाद हिंद वह ,
कायर डायर बना लाचार।
दावत देता वह स्वयं मौत को ,
था डर काँप रहा अंग्रेज ,
महाबली वह बन प्रलयंकर ,
आजाद था देशप्रेम लवरेज।
दुर्भाग्य राष्ट्र बन वह पल दुर्भर ,
बची अग्निगोलिका एक ,
चला उसे धर स्वयं भाल पर ,
किया राष्ट्र अभिषेक ।
रक्षित संकल्पित निज जीवन
तन रहूँ बिना रिपु स्पर्श ,
दे जीवन रक्षण माँ भारति!
चन्द्र शेखर आज़ादी उत्कर्ष।
काँप रहा था हाथ पास लखि
पड़ा शव शिथिल देह बलिदान ,
आशंकित मन कहीं उठे न ,
वह आजा़द वतन परवान ।
गुंजा भारत जय हिन्द शेर बन
आजाद़ वतन सिरमौर,
अमर शहीद प्रेरक युवजन का ,
पावन स्मृति बन निशि भोर।
शत् शत् सादर नमन साश्रु हम ,
श्रद्धा सुमन अर्पित तुझे आज़ाद,
ऋणी आज तेरी बलि के हम,
राष्ट्र धरोहर रखें सदा आबाद।
अमर गीति बन स्वर्णाक्षर में
लिखा वीर अमर इतिहास ,
युग युग तक गाया जाएगा ,
चन्द्र शेखर आजा़दी आभास।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली
डॉ जितेन्द्र ग़ाज़ीपुरी
लहू का रंग सिर्फ़ लाल होता है
इसलिए
चाहे कोई भी नस्ल हो
कोई भी जाति हो
कोई भी मज़हब हो
इसका बहना
जीवन से ऊर्जा का क्षय हो जाना है
जीवन को संचित करना है
तो लहूलुहान न करें
मानवता का जनपथ
डॉ जितेन्द्र ग़ाज़ीपुरी
अतिवीर जैन पराग मेरठ
सभी को नमन,गुजारिश
गुजारिश :-
गुजारिश है कि मत,
वतन को जलाओ यारो.
मत झुठ दर झुठ बोलो,
मासूमों को भडकाओ यारो.
गुजारिश है कि मत,
हिंसा को भडकाओ यारो,
मत पत्थर,एसिडबॉम्ब,
गोलियाँ,बरसायों यारो.
गुजारिश है कि मत,
बेगुनाहों कि
लाशें बिछाओ यारो.
मत अपनी गंदी राजनीति,
लाशों पे चमकाओ यारो.
गुजारिश है कि मत,
अपना देशधर्म भूल,
राजधर्म याद दिलाओ यारो
प्यार से रहने दो,मत
जनता को भडकाओ यारो.
स्वरचित,
अतिवीर जैन पराग
मेरठ
गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
"हाँ ! मैं बदल गया"
""""""""""""""'''""""""""""
जिंदगी के सफर में
मैं चलता गया
किस्मत ने जैसे नाच नचाया
वैसे नाचता गया
खुद को बहुत संभाला
कहीं सँभला तो कहीं फिसल गया
वो लोग ही थे मेरे अपने
जो जज्बातों के संग खेला
किसी ने विश्वास तो किसी ने दिल को तोड़ा
वक़्त था बदलने का और मैं बदल गया
बड़ी मासूमियत से कह रहे हैं वो लोग
देखो ये कितना बदल गया ।।
गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
©®
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
एक नए फागुनी गीत का मुखड़ा
होरी खेलों हमारे संग, देखो फागुन आऔ हैं।
मुखड़े पर लगाओ ये रंग, देखो फागुन आऔ हैं।
डारि के रंग चुनर भिगो दी, चोली भिगो दई मोरी।
पकड़ि कलाई पास बुलावै, वो खूब करै बरजोरी।
खूब मन मे भरे हैं उमंग, मनोज सब पे छाऔ हैं।
होरी खेलों हमारे संग, देखो फागुन आऔ हैं।(1)
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
प्रखर दीक्षित
दानवता जब सिर चढ़कर बोले।
निर्ममता जब भय के पट खोले ।।
तब स्वाभिमान हित शिव नर्तन,
विद्वेष विखंडित क्रूरता भय डोले।।
प्रखर दीक्षित
डा इन्दु झुनझुनवाला
विषय -देश प्रेम
आज तिरंगा रोता है ।
जब कोई सैनिक सीमा पर, अपना शीश चढ़ाता है।
जब कोई माँ का लाल, तिरंगे मे लिपट कर सोता है।
तब शान से यह लहराता है ।
पर आज तिरंगा रोता है।
जब वीर कोई परिवार छोड,सीमा पर ठाँव बनाता है ,
तब माइन्स डिग्री पे देखो ,बिछौना बर्फ सजाता है ।
तब शान से यह लहराता है ।
पर आज तिरंगा रोता है।
सर्दी गर्मी हो धूप छाँव,बरसात या खाने के लाले,
जब कोई प्रेमी देशप्रेम पे, अपनी जान लुटाता है ।
तब शान से ये लहराता है ।
पर आज तिरंगा रोता है ।
पर जब कोई देश का वासी, देश के अन्दर सेंध लगाता है ।
जब कोई भारत का बनकर ,भारत माँ को ही सताता है ।
तब माँ का तिरंगा रोता है ।
आज तिरंगा रोता है।
जब देश द्रोह का साथी बन,वो पीठ पे वार कराता है ।
माँ का लाल फिदायिन बन,जब माँ की कोख लजाता है।
मजबूर तिरंगा रोता है ।
पर आज तिरंगा रोता है।
हिन्दु मुस्लिम के झूठे खेल,हर कौम की नाक कटाता है ।
स्वार्थ मे डूबा मानव,दानव बन,मानवता को ठुकराता है ।
ऐसे मे तिरंगा रोता है ।
आज तिरंगा रोता है ।
डा इन्दु झुनझुनवाला
👏
भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
ताटंक छंद गीत
माना कि सफर कुछ लंबा है, चलते ही पर जाना है।
पथ पर अविचल चलकर ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।
चाहे जितने अटकल आयें, मंज़िल को तो पाना है।
पथ पर अविचल चलकर ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।
*ऋतुएँ भी तो बदलेंगी ही, शरद-उष्ण भी आना है।
सहकर मौसम की मारों को, समरस-सुमन खिलाना है।।
हर्षाकर हिय भारत भू का, अमन-चमन लहकाना है।
पथ पर अविचल चलकर ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।
*नवल-शोध, नित नव उन्नति से, कर्म-केतु फहराना है।
हम हैं पावक-पथ के पंथी, लोहा निज मनवाना है।।
हार-हराकर हर हालत में, प्रशस्त पंथ कराना है।
पथ पर अविचल चलकर ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।
*मानवता के जो हैं रोधी, उनको सबक सिखाना है।
आस्तीन-छिपे साँपों का भी, फन अब कुचला जाना है।।
लिख साहस से इतिहास नया, अपना धर्म निभाना है।
पथ पर अविचल चलकर ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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नूतन लाल साहू
फागुन तिहार
फागुन हा आ गे
बजा ले नगाड़ा
फूल गे हे परसा के फूल
गा ले होरी के गीत
गा ले होरी के गीत
आमा मऊरागे,कोयली बऊरागे
जाड़ पतरागे
नाचत हे, सल्हई मैना
फागुन हा आ गे
बजा ले नगाड़ा
फूल गे हे परसा के फूल
गा ले होरी के गीत
गा ले होरी के गीत
रतिहा अंजोरी,अगोरा मया गीत
तिहार लकठागे
पुलकत हे,परानी
चारो खुट, खुसी समागे
फागुन हा आ गे
बजा ले नगाड़ा
फूल गे हे,परसा के फूल
गा ले,होरी के गीत
गा ले,होरी के गीत
महर महर,महकै अमरईया
पगली कस, कुहक़य कोयलिया
बाजय झांझ,मंजीरा
चुटकी भर,गुलाल लगा ले
फागुन हा आ गे
बजा ले नगाड़ा
फूल गे हे,परसा के फूल
गा ले,होरी के गीत
गा ले, होरी के गीत
नूतन लाल साहू
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली
दिनांक: २७.०२.२०२०
दिन: गुरुवार
शीर्षक: उठी घृणा की धूम
विधा: दोहा
छन्द: मात्रिक
आसमान काला हुआ , उठी घृणा की धूम।
उड़े मौत भी गिद्ध बन , देख अमन महरूम।।१।।
कट्टर है नेतागिरी , भड़काते जन आम।
जला रहे, खुद भी जले, बस भारत बदनाम।।२।।
क्या जाने वे दहशती , क्या माने है धर्म।
परहित प्रीत सुमीत क्या , दया कर्म या मर्म।।३।।
शान्ति नेह समरस मधुर, क्या जाने शैतान।
सौदागर जो मौत के , खुद जलते ले जान।।४।।
अफवाहें भड़काव के , फैलाते जन भ्रान्ति।
मार काट दंगा वतन , मिटा रहे वे शान्ति।।५।।
देर हुई सरकार की , कत्ल हुआ जन आम।
निर्दोषी लूटे गये , मौत खेल अविराम।।६।।
आज बने जयचंद बहु ,आस्तीन का सर्प।
वैर भाव हिंसा घृणा , सदा मत्त डस दर्प।।७।।
महाज्वाल प्रतिशोध की, जले पचासों जान।
लुटी खुशी उजड़े चमन , बन मातम हैवान।।८।।
रहो सजग हर पल सबल, अनहोनी आगाज़।
निर्भय नित जीवन्त पथ ,कर आपदा इलाज़।।९।।
कवि निकुंज करता विनत,जागो जन सरकार।
बांटो मत भारत वतन , करो नाश गद्दार।।१०।।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" हरिद्वार से
दिनांकः ७२.०२.२०२०
वारः गुरुवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः 🙋महाशक्ति बन प्रलय सम☝️
महाशक्ति बन प्रलय सम, कौन कहे कमजोर।
कहो न अबला नारियाँ , निर्भयता बेजोड़।।१।।
पढ़ी लिखी मेधाविनी,चहुँदिशि करे विकास।
भर उड़ान छूती गगन , अंतरिक्ष रनिवास।।२।।
गहना बन कुलधायिका ,ममता बन जगदम्ब।
बेटी बन लज्जा पिता , भातृ प्रीत अवलम्ब।।३।।
प्रियतम का अहसास बन,वधू रूप कुल मान।
पतिव्रता सीता समा , बन दुर्गा संहार।।४।।
शील त्याग मधुभाषिणी , कुपिता बन अंगार।
याज्ञसेनि वीराङ्गना , प्रिय वल्लभ शृंगार।।५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
नयी दिल्ली
दिनांकः २७.०२.२०२०
वारः गुरुवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः🥀निशिचन्द्र✍️
पत्नी है अर्द्धांगिणी , सुख दुख की सहभाग।
वधू मातु गृहलक्ष्मी , रणचण्डी अति राग।।१।।
स्नेह शील तनु त्याग नित,अर्पण निज सम्मान।
लज्जा श्रद्धा अंचला, कुलदात्री वरदान।।२।।
दारा भार्या प्रियतमा , स्त्री जीवन संगीत।
बन यायावर सारथी , मीत प्रीत नवनीत।।३।।
निश्छल मन पावन हृदय,स्वाभिमान व्यक्तित्व।
प्रिया प्रसीदा भाविनी , महाशक्ति अस्तित्व।।४।।
कवि निकुंज जीवन सफल,निशिचन्द्र अनुराग।
बनी सफल कविकामिनी , कीर्तिपुष्प रतिराग।।५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
हरिद्वार से 👉
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल झज्जर (हरियाणा )
बांसुरी सा....
सुबह जब उठा
तो मीठी सी ध्वनि
कानों में गूँजी
देखा जो दूर नज़र उठा
एक यौवना बांसुरी बजाती हुई
अपने आप में मस्त
धुनों में रमती हुई
सुर-ताल से सजी
होठों से बजती हुई.
एैसा लगे मानो
ढूंढ़ती हो अपने स्वप्नों को
अनरचे गीतों को
आकांक्षाओं को
दूसरी दुनिया से अन्जान
जैसे कुसुमित निर्झर फुहार
खेतों में, खलियानों में,
कुंजों में, निकुंजों में,
यमुना के कछारों में,
आरती में, भजन की तरंगो में
जो भी पुकार सुने चलता राही
ठहर जाता है
खींचा चला आता है.
गोपियों सा मन -मीत बन जाता है
कुछ तो बात थी
उसकी उँगलियों में "उड़ता "
जो हल्का सा शौर भी
गीत -ए -मंजर बन जाता है.
✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
झज्जर (हरियाणा )
📱9466865227
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल झज्जर (हरियाणा )
उन्हें याद रख.....
नेकी का रास्ता मुकम्मल है,
तू इंसानियत के साथ चल.
एहसास के धागे से बांध ले,
तू रोमानियत के साथ चल.
दिल में थोड़ा तरस रख,
हैवानियत को नकार चल.
किसी के लिए छत बन,
रवायतों के हिसाब चल.
उनकी कुर्बानियों को याद रख,
शहादतों के समाज चल.
जज़्बातों से जुड़े रिश्ते,
अमानतों के आज चल.
चरित्रहीन हुए कुछ लोग,
उनकी जमानतों के बाद चल.
भला करके भूल जा,
सब खयानतों के हाथ चल.
ज़माने के एहसान तुझपर "उड़ता ",
तू बस नियामतों को याद रख.
✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
झज्जर (हरियाणा )
📱9466865227
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
शेर
हमारा हर गम उठा कर कभी भी उफ़ तक न करते।
ज़माने भर को ख़ुशी बाँटते खूब अजीब है वो।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
श्याम कुँवर भारती ,बोकारो ,झारखंड
ओज कविता –भारत की मुस्कान लिखुंगा
कहोगे मुझसे मै तो नाम हिंदुस्तान लिखुंगा ।
एक बार नहीं सौ बार नहीं शुबहों शाम लिखुंगा ।
नही भुला मै महाराणा के भालाऔर चेतक को ।
बीर भुजाए ऊंचा ललाट मातृभूमि के रक्षक को ।
अंतिम दम लड़नेवाला भारत का स्वाभिमान लिखुंगा ।
वीर शिवाजी लक्षमी बाई की वीर गाथा गाउँ ।
सम्राट अशोक विक्रमादित्य को सिर माथा नवाऊँ ।
भारत माता चरणों का जुग जुग दास्तान लिखुंगा ।
बंद आंखो से बेध दिया सीना गोरी पृथवी राज ने ।
चंदबरदाई ने किया कविता इसारा कविराज ने ।
गाजर मुली जैसा काटा मुगलो का कब्रिस्तान लिखुंगा ।
साल नहीं दो साल नहीं हजारो साल इतिहास हमारा है ।
संग्राम हजारो झेला हमने फिर भी भारत खास सवारा है ।
नहीं मिटा है नहीं मिटेगा भारत का घमासान लिखुंगा ।
गंगा यमुना सरस्वती चरण पखारती है जिसका ।
चोटी हिमालय सिर ऊंचा उठाती है जिसका ।
चहके चहु सोन चिरइया भारत का मुस्कान लिखुंगा ।
श्याम कुँवर भारती ,बोकारो ,झारखंड
कैलाश , दुबे होशंगाबाद
दो घड़ी हमसे भी प्यार कर ले ,
भले ही झूटा इकरार कर ले
हम भी मनचले हैं बहुत ही यारा ,
ज़रा नजरों के बारे इधर भी कऱ ले ,
कैलाश , दुबे
रीतु प्रज्ञा दरभंगा, बिहार
सितम
ये कैसी सितम है आयी
शैतानों ने नींद है चुरायी
दुकान,घर सब है जला
लोभी भेड़िया है इधर-उधर खड़ा
दरिंदगी से धुआँ-धुआँ सा है पवन
खौफ समाया है प्रति जन के बदन
माँ खोती जा रही हैं सुनहरा कल
रहा न कोई देने वाला मीठा फल
बहने ढूंढू रही हैं रक्षाबंधन वास्ते कलाईयाँ
घड़ी-घड़ी मिल रही हैं रुसवाईयाँ
अश्रुपूरित नैना करती हैं सवाल
सितमगर क्यों देते गमों का सैलाब?
रीतु प्रज्ञा
दरभंगा, बिहार
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
एक फागुनी छंद
होली मा रंग गुलाल, उड़ावति भिगोवति,
निज चोली बड़ा वह, लट लहराती हैं।
मेलति गुलाल मुख, पे सबै के दौड़ि दौड़ि,
चुनरि उठाइ हाथ, निज फहराती हैं।
किसी की न सुनति हैं, कोई भी न बात वह,
भरे पिचकारी बस, रंग बरसाती हैं।
अब नर नारी कोई, पहिचाने न जाति है,
रंग सनी छवि उसकी, हिय हरसाती हैं।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
आलोक मित्तल रायपुर
मुक्तक
आप में से वो विधाता कौन है,
आग आ आ कर लगाता कौन है
हर तरफ इंसान रहते है यहाँ
फिर वतन आ कर जलाता कौन है ।
** आलोक मित्तल **
निधि मद्धेशिया कानपुर
देश
थाह नहीं पा सकता चिड़ा
पैठ गयी कितनी गन्दगी
सागर के पानी में है।
घोंसला चिड़ियों का अब
बाजों की निगरानी में है।
मंच से कह दी जाए कितनी
अच्छी बातें, विष घुला है
दूध में, पानी में है।
गाते जो गाथा,शौर्य
इतिहास का
उन्हें ही भा रही चित्कार
जो नर-नारी में है।
निधि मद्धेशिया
कानपुर
कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली
स्वतंत्र रचना सं. २७८
दिनांकः २९.०२.२०२०
वारः शनिवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः होली दे संदेश
माघ फाग अहसास बन, आयी मादक संग।
पर खूनों की होलिका , की होली बदरंग।।१।।
नफ़रत की पिचकारियाँ , भर खूनों का रंग।
छायी दहशत की नशा , मार काट हुरदंग।।२।।
घर दूकान वाहन सब , चढ़े होलिका भेंट।
जले ज्वाल दंगा अनल,स्कूली परिणय सेट।।३।।
बैठ होलिका गोद में , प्रेम शान्ति प्रह्लाद।
जली आग इन्सानियत,निर्ममता अवसाद।।४।.
हालाहल दुर्भाव में , जलता देश समाज।
मिली कपट हिंसा घृणा,भांग फाग आगाज।।५।।
आतंकी साजीश सच,हिरण्यकशिपु अनेक।
घोल रहे हिंसक बने , घृणा रंग अतिरेक।।६
बन गुलेल पिचकारियाँ , पत्थर रंग फुहार।
बने शस्त्र पेट्रोल बम , मौत फाग उपहार।।७।।
मिटी फाग सारी खुशी, खोकर अपने लोग।
छा मातम जन मन वतन,फँसे नफ़रती रोग।।८।।
नग्न नृत्य जब मौत की , तब चेती सरकार।
छूट मिली रक्षक वतन , रोक थाम गद्दार।।९।।
अपनों को खोकर मनुज,शोकाकुल है मौन।
है प्रश्न मानस निकुंज , सोचो दोषी कौन।।१०।।
बने मीत हम प्रीत फिर ,भरे घृणा मन खाई।
रहे शान्ति एका वतन , हम सब भाई भाई।।११।।
आओ मिल मन्नत करें , जले होलिका द्वेष।
प्रीत नीति बन फागुनी , होली दे संदेश।।१२।।
भूलें हम सब गम सितम,बढ़े पुन: नव जोश।
रंगे रंग उत्थान पथ , रह जाग्रत नित होश।।१३।।
नवजीवन नवरंग बन ,अधर सुखद मुस्कान।
बिना भेद सबकी प्रगति, हो सबको सम्मान।।१४।।
सर्व धर्म सद्भावना , होली हो त्यौहार।
फिर निकुंज आहत चमन,सजे प्रीति शृङ्गार।।१५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
पी एस ताल
*मालवी में रचना*
मु तो उठिग्यो
अखबार पढ़ी न
खटिया पर लेटिग्यो।
दूध वारो आयो
तपेला में दूध
उड़ेग्यो।
तपेलो किचन में लेग्यो,,
गैस के चूल्हा पर चढायो
चाय पत्ती नाक्यो।
थोड़ी बाद चाय उबारियो,
चाय छलनी में चांयो,
कप में ली पियो,
गण्णी गण्णी
मीठी लागी ,
पर चाय सुहादी।
फिर बिस्तर गादी
पलँग ती उठादी।
✒पी एस ताल
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
शेर
जगह तमाम फ़क़त ढूढ़ता तुझे ही था।
तिरा निगार मुझे पर कहीं नही मिलता।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
प्रिया सिंह लखनऊ
ये रंग होली का नहीं
जम्हूरीयत का खून है
ये रंग टोली का नहीं
सियासी ये जूनून है....
ये रंग होली का नहीं....
जम्हूरीयत का खून है...
इन्हें शौक कत्ले आम का
इन्हें शौक नशीले जाम का
धर्म ना है जात उनकी "बस"
भीड़ का ये... कानून है
सियासी ये जूनून है...
ये रंग होली का नहीं .....
जम्हूरीयत का खून है.....
हिन्द ना ही मान उसका
हिन्द ना ही जान उसका
अस्तित्व का उसके पता नहीं
बस खून खराबा मालूम है
सियासी ये जूनून है ....
ये रंग होली का नहीं......
जम्हूरीयत का खून है.....
ये चोट उनको लगा नहीं
उन्हें घाव जरा हुआ नहीं
उन्हें तब तलक कहाँ सूकून है
सियासी ये जूनून है....
ये रंग होली का नहीं...
जम्हूरीयत का खून है...
उरूज का ये दस्तूर है
कुर्सी पर उन्हें गुरूर है
उन्हें आवाम से क्या वास्ता
उनका तो साफ हो ये रास्ता
उन्हें उजाड़ का हुकुम है
सियासी ये जूनून है..
ये रंग होली का नहीं ...
जम्हूरीयत का खून है ..
Priya singh
श्याम कुँवर भारती [राजभर] कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,
हिन्दी होली गीत – मत तरसाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
अबकी फागुन तुमको लगाएंगे रंग |
मुझे मत तड़पाओ ना |
गोरे गालो गुलाल लगाएंगे हम सारा |
रंग देंगे कोरी चुनरिया गोरी हम तुम्हारा |
डलवा लो रंग अबकी तुम रानी ,
मत छिप जाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
आओ खेले होली दोनों खेल रहा जमाना |
बच ना पाओगी हमसे मत बनाओ बहाना |
भर लेंगे बाहो मे तुमको जानी |
तुम मत इठलाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
मस्ती मे झूमे होली हम खेले संग |
चुनरी भिंगा लो चोली रंगा लो रंग |
संतोष भारती का यही है कहना |
जालिम दिल ना जलाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
श्याम कुँवर भारती [राजभर]
कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,
मोब /वाहत्सप्प्स -9955509286
गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
"शब्दों की महत्व"
"""''""""""""""""""""""""
शब्द - शब्द की फेर है
शब्दो का है खेल
जहाँ शब्द सीतल करै
होता दिलो का मेल
ना शब्दो की हाथ है
ना शब्दो की है पाँव
एक शब्द चूक हो जाये
देता अनेको घांव
शब्द सिखाती उच्च - नीच
शब्द सिखाती बैर
शब्दों का है बड़ा झमेला
शब्दों का है फेर
जो, शब्दो की गरिमा समझा
मिला मान सम्मान
जो शब्दो की गरिमा खोया
हुआ बड़ा अपमान
शब्दों में ही अहंकार है
शब्दों में ही विनम्रता
सदा शब्द का सम्मान करो
ऊँचा हो या नीचा
धन तो घटता - बड़ता है
रहता शब्द स्थिर
इसी शब्द की मंथन देखो
मिले शत्रु और पीर
शब्दों में ही ज्ञान है
शब्दों में ही सँस्कार
सारे जग को ढूंढ लो
शब्दों में ही संसार
मैं "रावण" अज्ञानी हूँ
ढूँढता दर - दर ज्ञान
छोटे - बड़ो के शब्दों से
मिले अनेको ज्ञान ।।
गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
®●©●
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, "प्रेम"
हायकु
संग हमारे।
एक दूजे के होले।
मितवा प्यारे।
रेशम वाली
कुड़ियां अलबेली।
छमक छल्ली।
जिओ ,जीने दो।
बुरी नजर वालों।
खुदा के बन्दो।
मझधार मे,
डूबते नाविकों से।
कैसी उम्मीदें।
वफा बेवक्त।
गैर की जरूरत।
हैवानियत।
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, "प्रेम"
स्वरचित व मौलिक रचना।
।
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी
................पिता जन्मदाता है..................
माता जन्मदायिनी है तो पिता जन्मदाता है।
दोनों के योग से ही संतान जन्म पाता है।।
माता नौ महीने पेट में बच्चे को पालती है;
पिता भरन - पोषण की उम्मीद जगाता है।।
खुद कितने ही मुसीबतों से घिरे रहें पर ;
संतान की कोई तकलीफ़ सह नहीं पाता है।।
जरूरत हो तो खुद आधा पेट खाएं पर ;
संतान को सर्वोत्तम भोजन खिलाता है।।
खुद अनपढ़ या कम पढ़े - लिखे क्यों न रहें;
बच्चों को ऊंची से ऊंची तालीम दिलाता है।।
जीवन भर जिन मुश्किलों से परेशान रहे;
संतान को उन मुश्किलों से हमेशा बचाता है।।
माता - पिता दोनों ही बराबर हैं "आनंद" ;
उत्तम संतान ही दोनों का कर्ज चुकाता है।।
--------------- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
*मेरी कविता में जीवंतता हो*
*****************
मैं अपनी कविता के लिए तलाश रहा हूं,
शब्दों को बनाने वाले
अक्षर रेखाएं, मात्राएं
ताकि उनमें भर सकूं
जीवंतता, जिजीविषा
मैं अपनी कविता में
किसान की पीड़ा
गरीब मजदूर का दर्द
पहाड़ में खाली होते गांवो
सभी की करुण कथा
शामिल कराना चाहता हूं,
शब्दों को चुन-चुन कर
एक लतिका बनाना चाहता हूं,
आज प्रगति के नाम पर
जीवन कितना ऊबाऊ है
मैं अपनी कविता के माध्यम से
नव चेतना भरना चाहता हूं,
जीवन क्या है
अपनी कविता में शामिल कराना चाहता हूं।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
संजय जैन (मुम्बई)
*दिल तेरा है तो...*
विधा : कविता
तेरी तस्वीर को,
सीने से लगा रखा है।
और तुझे अपने,
दिल में बसा रखा है।
इसलिए तो आंखे,
देखने को तरसती है।।
दिल तेरा है,
पर हक तो मेरा है।
क्योंकि तुमने मुझे,
अपना दिल जो दिया है।
मेरा मन जब भी करेगा,
तेरे दिलमें आता रहूंगा ।
बस ये दिल तुम,
किसी और को मत देना।।
मोहब्बत करना और,
उसे निभाना बड़ी बात है।
दिल के अरमानोंको,
जलाना भी बड़ी बात है।
वैसे तो बहुत लोग,
मोहब्बत करते है जिंदगी से।
परन्तु हकीकतकी कहानी,
उनकी कुछ और कहती है।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
29/02/2020
सुनील कुमार गुप्ता
कविता:-
*"सागर"*
"सागर से गहरा प्रेम तेरा,
जीवन में हर पल -
संग निभाना है।
नदियों सी विचारधारा ,
अलग अलग-
सागर में मिल जाना है।
अपनत्व की खातिर ही तो यहाँ,
साथी जीवन में-
जीना और मर जाना है।
टूट कर न बिखरेगे हम,
बादल बन जाना-
बरस फिर सागर में मिल जाना हैं।
इन्द्रधनुष के रंगों से ही,
इस जीवन को-
साथी यहाँ महकाना है।
सागर से गहरा प्रेम तेरा,
जीवन में हर पल-
संग निभाना है।।
सुनील कुमार गुप्ता
एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।
*मशीन सा भावना शून्य*
*हो गया है आदमी।मुक्तक*
अपनेपन से हम अब दूर
अनजान हो गए हैं।
अहम से भरेअब खुद हम
भगवान हो गए हैं।।
एक चलती फिरती मशीन
से बन गये हैं हम।
आज हम भावना शून्य
बेजुबान हो गए हैं।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।*
*जादू सा असर दुआओं का ।*
*मुक्तक*
आँखों में भरकर जरा तुम
पानी तो लेकर जायो।
किसी के दर्द में तुम नई
जिंदगानी लेकर जायो।।
स्नेह और प्रेम तो निष्प्राण
में भी डाल देते हैं जान।
पास उसके जरा दुआओं
की कहानी लेकर जायो।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली।
*शब्द की महिमा(हाइकु)*
कभी हैं शब्द
कभी है वाचालता
कभी निःशब्द
शब्द से पीड़ा
शब्द से मरहम
शब्द से बीड़ा
शब्द प्रेम है
शब्द से होता बैर
शब्द प्राण है
शब्द जीवन
शब्द से मिले ऊर्जा
शब्द से गम
शब्द नरम
शब्द विष अमृत
शब्द गरम
शब्द से दूरी
बात हो सदा अच्छी
यह जरूरी
शब्द से प्यार
शब्द से हो दुश्मनी
शब्द से यार
*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर श्री* *हंस।।।।।।।।बरेली
*मामूली से ऊपर उठकर खास*
*हो गये।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।*
जी कर पूरा जीवन भी
गुमनाम इतिहास हो गये।
बोल बोल बड़े वचन
बस उपहास हो गये।।
पर जिन्होंने बदल ही
दी तस्वीर जिन्दगी की।
लेकर जन्म आम ही
वह आज खास हो गये।।
*रचयिता।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।।।बरेली।।।।।।।।।।*
मोब 9897071046।।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
रोम रोम में देव बसे दिव्य देह को नमन करूँ।
मैं बनकर के गोपालाक धेनु तेरा वरण करूँ।।
तुम माता सुख की दाता तेरे अनन्त उपकार।
देव मनुज और यति सती करते है तुमसे प्यार।।
न जाने कितनी पोषकता तेरे दूध में भरी हुई।
तेरे दही मख्खन घृत से मिले है ऊर्जा नई नई।।
अमृतमय पंचगव्य अवर्चनीय गुणों की खान।
तुमसे ही गौ माता यहां थी मानव की पहचान।।
जो करेगा पालन पोषण होगा कृष्णा का मीत।
घेरेंगे न दुःख दरिद्रता वह जग को लेगा जीत।।
गोपालक भगवान की जय🙏🙏🙏🙏🙏🌸🌸🌸🌸🌸
सत्यप्रकाश पाण्डेय
राजेंद्र रायपुरी
*परीक्षा*
परखने तुझे,
होगी परीक्षा तेरी,
कदम-कदम पर,
कहते जिसे,
इम्तहान।
ऐ नादान,
डर मत।
बढ़ा कदम,
करके हौसला,
तभी उड़ पाएगा,
ऊॅ॑ची उड़ान।
जो डर गया,
सो मर गया।
रख ये जुमला,
ज़हन में,
तभी,
राह होगी,
आसान।
और होंगे पूरे,
तेरे अरमान।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
हे मां वीणा धारणी
***************
हे मां शुभ्र वस्त्रधारिणी,
दिव्य दृष्टि निहारिणी,
पवित्रता की मूर्ति हो
हे मां वीणा धारणी।
पाती में वीणा धरै,
तुम कमल विहारिणी,
ज्ञान की देवी हो मां,
हे मां वीणा धारणी।
ज्ञान का वरदान दे,
दया का भाव दे मां,
कुपथ पर कभी न चलूं,
हे मां वीणा धारणी।
देश प्रेम भाव नित्य हो,
सरल सदाचारी बनूं ,
करूणा हृदय में रहे,
हे मां वीणा धारणी।
******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
डॉ. शेषधर त्रिपाठी पुणे, महाराष्ट्र
खंडहर बसंत(आज की नजर में
---------------------
वीरानियों पर टसुए बहाता,
जो उजड़ा हुआ चमन है।
बुलबुलों की चहक नदारद
अब खंडहर हुआ बसंत है।
दिलजलों ने दिल जलाकर,
खाक गुलशन कर दिया।
अब रहनुमा बन कह रहे हैं,
वाह जी!मैंने क्या किया।
होश में कब आएगी इंसानियत,
जो इंसान को ही रौंदती है।
लगा दी आग आशियाने में,
जो रह रह के दिलों में कौंधती है।
कैसा गुबार था ये घिनौना,
जो तेरा जमीर सिसकता भी नहीं,
तेरे कद का जो इंसान था,
अब हैवानियत से हो गया बौना।
इंसां जो भी गुबार है तेरे दिल में,
उस पर नफरतों का मुलम्मा न चढ़ा।
रहमो अमन से अब सीख रहना,
बस इंसान बनकर इंसानियत बढ़ा।
© डॉ. शेषधर त्रिपाठी
पुणे, महाराष्ट्र
डॉ शिव शरण "अमल"
राजनीतिक शुचिता की महती आवश्यकता
गुरु गोविंद सिंह जी हमेशा एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला की बात करते थे,
आज के समय में माला का अर्थ है धर्म और भाला का अर्थ है राजनीति,जब तक दोनों में समन्वय नहीं होगा,तब तक सम्पूर्ण क्रांति नहीं हो सकती,
जिस तरह चाणक्य और चन्द्रगुप्त,राम और विश्वामित्र,कृष्ण और अर्जुन,शिवाजी और समर्थ गुरु रामदास,की युति से ही सम्पूर्ण क्रांति हुई थी उसी तरह आज भी जरूरी है ।
धर्म के क्षेत्र में तो काफी काम हो रहा है ,अंध विश्वास खत्म हो रहा है,विज्ञान भी धर्म को मानने लगा है, लेकिन राजनीतिक शुचिता के कोई प्रयाश नहीं हो रहे है,सभी पार्टियां सिर्फ वोट की राजनीति कर रही है,भाई_भतीजा वाद,जातिगत आरक्षण,अल्पसंख्यक और दलित तुष्टिकरण,पैसे का खेल ही चल रहा है, देश हित की चिंता किसी को भी नहीं है ।
अधिकांश बुद्धिजीवी,चिंतक साहित्यकार राजनीति को अछूत मानते है, जबकि वास्तविकता यह है कि बिना राजनीतिक शुचिता के व्यक्ति,परिवार,समाज एवं राष्ट्र का कल्याण संभव नहीं है,अस्तु अब समय आ गया है कि धर्म सत्ता से राम,कृष्ण,चन्द्रगुप्त,शिवाजी,और अर्जुन निकले तथा देश की बागडोर सम्हाले ।
इस विषय में वेदमुर्ती, तपोनिष्ट,गायत्री सिद्ध,पंडित श्री राम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित "वांग्मय क्रमांक 64" (राष्ट्र समर्थ एवं शसक्त कैसे बने ) के सूत्रों का आधार लिया जा सकता है ।
हमारा देश कालांतर मै जगत गुरु इसीलिए था क्योंकि उस समय राजनीति पर धर्म का मार्गदर्शन था,हरिश्चंद्र,दशरथ,राम,कृष्ण, चन्द्रगुप्त,शिवाजी,आदि सभी धर्म के अनुसार राजनीति करते थे ।
अगर अच्छे लोग राजनीति में भाग नहीं लेंगे सिर्फ आलोचना ही करते रहेंगे तो भारत को पुनः विश्व गुरु बनाने का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता ।
डॉ शिव शरण "अमल"
कुमार कारनिक (छाल, रायगढ़, छग)
मनहरण घनाक्षरी
*सच/सत*
-------------
सच में कितने लोग,
उम्र भर किये भोग,
लग गया झूठा रोग,
फर्ज तो निभाईये।
0
सत बात बोल तुम,
मन आपा खोल तुम,
सच्चाई को पहचान,
धरम निभाईये।
0
कांटों मे चलना होगा,
हंस के टालना होगा,
परीक्षा लेती सच्चाई,
राह तो बनाईये।
0
कदम आगे बढ़ाना,
आप न डग - मगाना,
सच के खातिर तुम,
न लड़खड़ाईये।
*****
अवनीश त्रिवेदी"अभय"
इक मुक्तक
कई गम दफन हैं दिल में कई अरमान घायल हैं।
हमे कहीं और न भरमाओ हम तुम पर ही कायल हैं।
हमारे दिल को अब तो कोई भी सुर ही नही भाता।
जिसकी छम-छम से मिलता चैन वो तेरी ही पायल हैं।
अवनीश त्रिवेदी"अभय"
नूतन लाल साहू
अलौकिक दुनिया
कैसा खेल रचा,मेरे दाता
तेरी महिमा, कोई समझ न पाया
जब जब आती है,विपदा जगत में
थरथर कांपे, सारी दुनिया
अभिमान लोगो का, चुरचुर हो जाता है
सहम जाती है,कैसे ये दुनिया
कैसा खेल रचा, मेरे दाता
तेरी महिमा,कोई समझ न पाया
खुद को विधाता,समझ गया था
माया में अंधा, हो चला था
सबको लुटने में, जो लगा था
अकल ठिकाने,अब आने लगी है
कैसा खेल रचा, मेरे दाता
तेरी महिमा,कोई समझ न पाया
इतना अहंकार,क्यों करता है प्राणी
भगवान से भी तू,क्यों नहीं डरता है
जब जब पतन हुआ,मानवता का
पल में नाश हुआ है,जीवन का
कैसा खेल रचा,मेरे दाता
तेरी महिमा, कोई समझ न पाया
युगों युगों से, ये होता आया है
फिर भी तू,समझ न पाया है
छोड़ के तू अपनी,सारी चतुराई
भजन कर तू,चरण कमल अविनासी
कैसा खेल रचा, मेरे दाता
तेरी महिमा, कोई समझ न पाया
सुमिरन कर हरिनाम,सुबह शाम
मानुष जनम,नहीं मिलना है बार बार
माता पिता गुरु, की सेवा कर ले
वो ही है प्राणी,जगत में सार
कैसा खेल रचा,मेरे दाता
तेरी महिमा,कोई समझ न पाया
नूतन लाल साहू
भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
*"ऋतु"* (वर्गीकृत दोहे)
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
◆चलता रहता वर्ष भर, छः ऋतुओं का चक्र।
लगता कभी सुहावना, लगे कभी कुछ वक्र।।१।।
(१४गुरु, २०लघुवर्ण, हंस/मराल दोहा)
◆एक-एक करके सभी, आते ऋतु प्रतिवर्ष।
सबका निज आनंद है, भरें हृदय में हर्ष।।२।।
(१४गुरु, २०लघुवर्ण, हंस/मराल दोहा)
◆उष्मा, वर्षा, शरद ऋतु, आये ऋतु हेमंत।
शिशिर, वसंत यथासमय, लेते लहर अनंत।।३।।
(१३गुरु, २२लघुवर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)
◆दाघ-निदाघ प्रचंड कब, बहे कभी जलधार।
शरद सुखद कब, ठंड कब, कभी वसंत बयार।।४।।
(१०गुरु, २८लघुवर्ण, पान दोहा)
◆भिन्न-भिन्न ऋतु भिन्नता, धरा करे शृंगार।
सबकी महती भूमिका, अनुकूलित संसार।।५।।
(१५गुरु, १८लघुवर्ण, नर दोहा)
◆ईश रचित संसार में, सुख देते ऋतु सर्व।
सबकी निज पहचान है, होता जिस पर गर्व।।६।।
(१३गुरु, २२लघुवर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)
◆मन-मौसम बदलो नहीं, रखो सदा आबाद।
रचना कभी न त्रासदी, करना मत प्रतिवाद।।७।।
(१३गुरु, २२लघुवर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)
◆ऋतुओं से सीखो सभी, परिवर्तन का पाठ।
आना-जाना है लगा, हर दिन रहे न ठाठ।।८।।
(१६गुरु, १६लघुवर्ण, करभ दोहा)
◆ऋतुओं का स्वागत करो, इनको हितकर जान।
विधि का मानव को दिया, मौसम है वरदान।।९।।
(१३गुरु, २२लघुवर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)
◆हर मौसम अनुकूल हो, करना मत अपकार।
हर पल नीयत नेक रख, करो विमल व्यवहार।।१०।।
(९गुरु, ३०लघुवर्ण, त्रिकल दोहा)
"""""''''""""""""""'"""""""""""''""""""""""""""
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
"""'"''''"""""""""""""""""""""""""""""""""""""
मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज
*मधु के मधुमय मुक्तक*
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
*मदद*
मदद किए हनुमान जी, सीता जी को खोज।
राम कृपा भी देखती, हिय में बसता ओज।
मदद भावना से बने, मानव ईश समान,
इसी भाव से मिल सके, भूखे जन को भोज।।
मदद ह्रदय से दीन की, सच्चा है इक दान।
सहज ह्रदय से वह धरे,इस जीवन का मान।
दूजों का दुख देख के, जो जन विचलित होय,
ईश्वर की संतान वो, वो ही हैं इंसान।।
शहर जला कर देखते, धुँआ उठा किस ओर।
स्वयं चाहते बैर बस, करे व्यर्थ में शोर।
एक लिए संकल्प जो, मदद भावना दीन,
वही मनुज बस श्रेष्ठ हैं, रात्रि साथ *मधु* भोर।।
मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज
गायत्री सोनू जैन मन्दसौर
इंसान हो इंसानो वाली अच्छी सी आदत रखो,
शर्मो हया की थोड़ी ही सही मग़र नज़ाकत रखो,
अपने तो अपने गैर भी तुम्हारे हो जायेंगे,
घमण्ड की जगह थोड़ी तो तुम शराफ़त रखो,
कोई नही हरा सकता जिसके बुलन्द हो हौसले,
तुम शेर हो गिद्धों के बीच थोड़ी तो हिम्मत रखों,
कभी हमसे भी आइये मीठी चार बातें करने,को
खुद के न सही मग़र दोस्तो के लिए थोड़ी तो फुर्सत रखो,
न उलझो तूम जमाने भर की बेकार सी बातों में,
बस दिल मे अपने सभी के लिए भाव रफाकत रखों,
जैसा करनी वैसी भरनी निश्चित ही होती है,
बस वक्त के साथ सच्ची और पक्की सोहबत रखो।
गायत्री सोनू जैन मन्दसौर
स्वरचित मौलिक रचना✍
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी
................ख्वाहिशों के गांव में................
मनपसंद चीजें मिलते हैं,ख्वाहिशों के गांव में।
अपने करीब होते हैं , ख्वाहिशों के गांव में।।
जब कभी भी अपनों का दीदार हो जाता ;
मन में खुशियां होते हैं , ख्वाहिशों के गांव में।।
नहीं होता किसी तरह का गलत अंदाज ;
दिल से दिल मिलते हैं , ख्वाहिशों के गांव में।।
चारों तरफ दिखते हैं , हरे - भरे मंज़र ;
जब कदम पड़ते हैं , ख्वाहिशों के गांव में।।
कहीं से कोई किसी की बदनियती न दिखे;
ऐसे उम्मीद होते हैं , ख्वाहिशों के गांव में।।
जैसे भी हो ठीक से गुजर जाए जिन्दगी ;
ऐसे ख्वाहिश होते हैं , ख्वाहिशों के गांव में।।
जब तब जैसे कटता , कट जाता"आनंद" ;
अंत ठीक से गुजरते हैं,ख्वाहिशों के गांव में।।
-------------- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी
"
वैष्णवी पारसे छिंदवाड़ा
दिल में उठे सवाल, खुबसूरत से ख्याल, आया एक पल ऐसा, हो गई दिवानी मैं।
उसमे ही खोई खोई , हरपल रहती हूं , मोह भरी दुनिया से ,हो गई बेगानी मैं।
दिल में वो बस गया, रंग में वो रंग गया, ऐसा एक नशा छाया, हो गई सयानी मैं।
चाहती हूं बस यही, साथ रहे हरदम, तू है मेरा बाजीराव, तेरी हूँ मस्तानी मैं।
वैष्णवी पारसे
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
विरह गीत
-??????
हृदय को जगा दूं
***************
धरा को सुला दूं,
गगन को जगा दूं
प्रिय , चांदनी में
विरह गीत गाऊं मैं।
बहुत है उदासी हृदय में हमारे,
बहुत खल रही है मुझे जिन्दगानी,
बहुत हैं सरस भाव उर में हमारे,
बहुत खल रही है मुझे यह जवानी।
अभी चांदनी मुझ से,
की खेल रचना रही है,
तुम्हें याद करके,
जरा मैं भी गुनगुनाऊं।
बहुत सोचता हूं तुम्हें मैं सुहागिनि,
कि जाती बची है तुम्हारी निशानी,
कठिन भाव जागे, गया कल शयन को,
उमड़ती रही आंसुओं की रवानी।
बहुत है उदासी,
मिलन चाहता हूं,
मगर आज तुमको,
कहां प्राण पाऊं।
दिया दर्द तुमने बुझाये न बुझता,
कहां कब रूकेगा, नयनों का ये पानी,
तुम्हारे लिए दीप के हर किरण में,
जलेगी हमारी शलभ सी जवानी।
नयन को सुला दो,
हृदय को जगा दो,
सपन बन तुम्हें अब,
जरा सा हंसाऊं।।
*********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171
**********************
संजय जैन(मुम्बई)
*मिलन*
विधा : कविता
जब हम होंगे, तुम्हारे पास तो।
कयामत निश्चित ही,
तुम्हारे दिलमें आएगी।
धड़कने दिलों की,
मानो थम जाएगी।
जब चांदनी रातमें,
होगा दिलोंका संगम।
तो दिलों के,
बाग लहरा उठेंगें।
और अमन चैन,
के फूल खिलेंगे।
तो मचलते दिलको,
जरूर शांति मिलेगी।।
दिल की यही,
खासियत होती है।
जब वो मचलता,
या पिघलता है।
तब दिन रात,
नहीं देखता है ।
बस उसी के बारे,
में सोचता है।
जिस पर उसका,
दिल आता है।
तभी तो धड़कनों में,
शमा जाता है।।
मोहब्ब्त में कामयाब,
वो ही होते है।
जो छोड़कर वासना,
चहात दिलमें रखते है।
और अपने प्यारको,
दिलसे अपनाते है।
तभी प्यार जैसे,
पवित्र रिश्ते को।
जिंदगी भर दिलसे,
निभा पाते है।
और स्नेह प्यार,
अपनो का पाते है।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन(मुम्बई)
28/02/2020
विवेक दुबे"निश्चल रायसेन
हो गये गुनाह फिर कुछ ।
सो गये बे-गुनाह फिर कुछ ।
चकाचौंध दिन उजियारो में ,
स्याह लिये पनाह फिर कुछ ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
सुप्रभात:-
जब शेर आराम से सोता रहता है;
तब गीदड़भी मांद में घूमता रहता है।
जब शेर सावधान हो जाग जाता है;
तब गीदड़ जंगल छोड़भाग जाता है।
-----देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
💐💐💐💐💐💐💐💐💐
एस के कपूर श्री हंस* *बरेली*
*रिश्ते और दोस्ती(हाइकु)*
नज़र फेर
वक्त वक्त की बात
ये रिश्ते ढेर
दिल हो साफ
रिश्ते टिकते तभी
गलती माफ
दोस्त का घर
कभी दूर नहीं ये
मिलन कर
मदद करें
जबानी जमा खर्च
ये रिश्ते हरें
मिलते रहें
रिश्तों बात जरूरी
निभते रहें
मित्र से आस
दोस्ती का खाद पानी
यह विश्वास
मन ईमान
गर साफ है तेरा
रिश्ते तमाम
मेरा तुम्हारा
रिश्ता चलेगा तभी
बने सहारा
दूर या पास
फर्क नहीं रिश्तों में
बात ये खास
*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली*
एस के कपूर श्री हंस* *बरेली*
*तन नहीं मन है परख आदमी की।*
*मुक्तक*
आदमी के दिल और जमीर
में सीरत टटोलिये।
मत शक्ल और लिबास में
उसकी कीरत टटोलिये।।
ज्ञान ,नियत और भावना हैं
गुण अच्छे आदमी के।
हो सके तो उसके अंतर्मन
का तीरथ टटोलिये।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।* मो
*बस आदमी इंसान बने*
*मुक्तक*
पत्थर से बने देवता
न कि शैतान बने।
आदमी बने इंसान न
कि वो हैवान बने।।
सृष्टि का चक्र चलता
मानवता की धुरी पर।
बस आदमी इंसानियत
पर जरा मेहरबान बने।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली
*न जाने कौन सी राह चल रहे।*
*मुक्तक।*
जाने हम कहाँ से कहाँ
अब आ गये हैं।
ईर्ष्या की दौलत को हम
आज पा गये हैं।।
सोने के निवालों से अब
अरमान हो गए।
आधुनिकता में भावनायों
को ही खा गए हैं।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
सत्यप्रकाश पाण्डेय
मेरे मन के आनन्द और हर्ष हो तुम ही जीवन के
हे मेरे बांकेबिहारी तुम ही सुख मेरे अन्तर्मन के
नहीं जग संताप की चिंता तेरे विरह की तड़पन है
नहीं गम जग जीवन मरण का उर में तेरा स्पंदन है
छोड़ न देना साथ तू मेरा बिन तेरे न रह पाऊंगा
जिंदगी की डगर में एक पल बिन तेरे न चल पाऊंगा
हे माधव एक अरदास है तुझसे मझधार में छोड़ न देना
भक्ति पथ से विचलित न हो जाऊं ऐसा वरदान मुझे देना।
श्रीकृष्णाय नमो नमः 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹🌹🌹
सत्यप्रकाश पाण्डेय
सुनील कुमार गुप्ता
कविता;-
*" खामोशी"*
"तूफान से पहले की खामोशी,
प्रलय ले आती है-
साथी जीवन मेंं।
मन में उठते बवंडर को,
रोक न पायेगे-
साथी जीवन में।
बढ़ती रहे जो कटुता मन में,
शांत रहेगा न कभी-
साथी जीवन में।
खामोश रह कर भी तो,
सब कुछ कह देते नैन-
साथी जीवन में।
खामोशी अच्छी नहीं जब,
संग साथी हो-
साथी जीवन में।
संग चल कर भी खामोश रहे,
क्यों -पाली नफरत इतनी-
साथी जीवन मे।
तूफान से पहले की खामोशी,
प्रलय ले आती है-
साथी जीवन में।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
राजेंद्र रायपुरी
😌 विनय सभी से है यही 😌
विनय सभी से है यही,
छोड़ो वाद-विवाद।
व्यर्थ करो मत ज़िंदगी,
तुम अपनी बर्बाद।
करना ही कुछ है अगर,
करो सभी से प्यार।
गले मिलो तुम प्रेम से,
भर सबको अॅकवार।
चार दिनों की ज़िंदगी,
फिर काहे तक़रार।
जियो इसे तुम इस तरह,
याद करे संसार।
शूल कहो भाता किसे,
फूल बनो तुम यार।
आॅ॑धी जैसा मत बनो,
बनो बसंत बयार।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
कालिका प्रसाद सेमवाल
🌺माँ शारदे------🌺
शारदे माँ शारदे, शारदे माँ शारदे ।
शब्द दे अनुभूतियों को, भाव को विस्तार दे।
शारदे माँ शारदे, शारदे माँ शारदे ।
दें हमें शक्ति जिससे सृष्टि का दुख-दर्द पी लें।
मुस्करायें कष्ट में भी, शूल में बन फूल जी लें।
लोकरंजन कल्पना को गीत का संसार दे ।
शारदे माँ शारदे, शारदे माँ शारदे ।
पूर्णता की आस बाँधे कामना के पंख लेकर।
हर दिशा में गूंज भरते, जागरण का शंक लेकर।
ज्ञान-मन्दिर में सृजन से नमन काअधिकार दे।
शारदे माँ शारदे, शारदे माँ शारदे।
🌻🥀🌻🥀🌻🥀🌻🥀🌻
कालिका प्रसाद सेमवाल
🌾🍂🌾🍂🌾🍂🌾🍂🌾
देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"
...............मेरे ख़्वाबों में..............
मेरे ख़्वाबों में बस तुम ही तुम हो।
मेरे ख्यालों में बस तुम ही तुम हो।।
यूं तो दुनियां में रिश्तों की कमी नहीं;
पर तसव्वुरों में बस तुम ही तुम हो।।
राह- ए- जिंदगी में,मिले,बिछुड गए;
मेरी नज़रों में बस तुम ही तुम हो।।
तेरी इन अदाओं का कद्रदान हूं मैं ;
मेरी दुआओं में बस तुम ही तुम हो।।
ये नहीं,मुहब्बत की जुबां नहीं होती;
मेरी जुबानों में बस तुम ही तुम हो।।
दिल कीधड़कन से कुछ निकले गर;
हर धड़कनों में बस तुम ही तुम हो।।
सब छोड़ कब निकल जाता"आनंद"
मेरी सांसों में बस तुम ही तुम हो।।
----- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"
एस के कपूर श्री हंस* *बरेली
*।।।।।।।।।।।*
*चंद्रशेखर आजाद जी के बलिदान दिवस * *27 फरवरी पर श्रद्धांजलि अर्पित।*
*मुक्तक माला*
*1............*
आज़ाद की गाथा तो है
आज भी प्रेरणा की कारण।
आज़ादी के लिए हँसते हँसते
किया था मृत्यु को धारण।।
पराधीनता सपनेहुँ सुख नाही
चढ़ गए वह सूली पर।
गुलामी में नहीं किया
कभी भी वंदना चारण।।
*2,,,,,,,,,,,,,,,*
जालियाँ वाला बाग का समय
और समय उसके बाद।
भारत की स्वाधीनता को बेताब
थे भगत सिंह और आजाद।।
प्राण किये न्यौछावर और
हो गए वह शहीद ।
आज सब भारत वासी कर रहे
नम आँखों से याद ।।
*रचयिता।।।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली।।।।।।।।।।।।।।*
मोब।।।।9897071046।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।
वैष्णवी पारसे छिंदवाड़ा
मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग
सुबह से शाम तक करती हूं मैं काम
एकपल भी नहीं करती आराम
अपनों का रखती हूं हरदम ख्याल
भूलकर अपना ही होश और हाल
मजबूत जिसकी डोर ऐसी मैं पतंग
मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग
कितनी ही भूमिकाएँ मैंने अदा की
माँ, पत्नी, बहन, बेटी
पर मेरी जरूरत इतनी ही क्या
बनाऊ मैं बस दो वक्त की रोटी
कब मिलेगी मुझे आजादी मेरे जीने का ढंग
मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग
जीजाबाई का मातृत्व मुझमे लक्ष्मी सी आग
राधा का समर्पण मुझमे सीता सा त्याग
गंगा की पवित्रता मुझमे दुर्गा सा शौर्य
उर्वशी की चंचलता मुझमे धरती सा धैर्य
समुंदर भी सहम जाए ऐसी मैं तरंग
मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग
वैष्णवी पारसे
डॉ सुलक्षणा अहलावत
मुझसे ना किया करो ये धर्म मजहब की बातें,
सुनो! मेरे ईश्वर औऱ तुम्हारे उस रब की बातें।
तुम्हें कुरान प्यारी है और मुझको मेरी गीता,
तुम्हें कट्टरता की, मुझे पसंद अदब की बातें।
देखो छिड़ जाएगी किसी दिन अपनी भी जंग,
मत किया करो तुम मुझसे बेमतलब की बातें।
सच तुमसे सहन नहीं होगा और झूठ मुझसे,
अपने तक रखो मियाँ अपनी अजब की बातें।
इतिहास के पन्नों को पलटकर देखना कभी,
फिर आकर करना तुम मुझसे तब की बातें।
बस हवाई किले बनाते हो तुम बरगलाने को,
दुनिया जानती है नहीं की तुमने ढब की बातें।
वक़्त के साथ खुद को भी बदलना सीखो तुम,
"सुलक्षणा" दिखा आईना करती अब की बातें।
कोई नतीजा नहीं निकलना अपनी बहस का,
आओ अपनी अपनी छोड़ करें सब की बातें।
©® डॉ सुलक्षणा
मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज
होली गीत
नैनों में रखती मधुशाला
तुम वो छैल छबीली हो।
*रंग भरी पिचकारी लेकर,*
*लगती बड़ी रसीली हो।।*
तुमसे सारे रंग जहाँ के,
रंग भरी रंगशाला हो।
बातों में रस ऐसे घोलो,
जैसे प्रेम पियाला हो।
तुमको देखूँ खुद को भूलूँ,
ऐसी बनी नशीली हो।।
नैनों में रखती मधुशाला.......।।
पिचकारी के प्रेम रंग से,
तुमने मुझे भिगा डाला।
जान सकूँ रंगों की भाषा,
ऐसा ज्ञान करा डाला।।
सतरंगी अम्बर सी लगती,
मोहक बड़ी सजीली हो।
नैनों में रखती मधुशाला........।।
लाल रंग प्रेमी का होये,
दुल्हन रूप सजाता है।
हरा,गुलाबी पीला रंग भी,
अन्तर्मन बहकाता है।
पास कहूँ या दूर तुम्हें मैं,
लगती सदा पहेली हो।।
नैनों में रखती मधुशाला.......।।
उड़े हुए रंगों से मिलकर
नया रंग बन जाती हो।
भूल सदा तुम बैर भाव को,
प्रीत की रीत चलाती हो।
बाहों में भर लूँ मैं तुमको,
ऐसी नार नवेली हो।।
नैनों में रखती मधुशाला .....।।
अपने रंगों में रंग डालो,
मैं तेरा दीवाना हूँ।
दहन होलिका से करवा दो,
मैं तेरा परवाना हूँ।
तुमसे साँसे तुमसे धड़कन,
मधु जीवन की बेली हो।।
नैनों में रखती मधुशाला........।।
कान्हा की मुरली में तुम हो,
शिव के डमरू में तुम हो।
नारद के करतल में बसती,
वीणा की धुन में तुम हो।
सुर सरगम का सार तुम्हीं से,
मधु तुम बहुत सुरीली हो।।
नैनों में रखती मधुशाला
तुम वो छैल छबीली हो।
रंग भरी पिचकारी लेकर,
लगती बड़ी रसीली हो।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*
मधु शंखधर 'स्वतंत्र'* *प्रयागराज*
*मधु के मधुमय मुक्तक*
🌷🌷🌷🌷🌷🌷
*विषय -- प्रेम*
◆ *प्रेम* कृष्ण की बाँसुरी,राधा का अनुराग।
मीरा की वीणा बजी,अन्तर्मन में त्याग।
प्रेम सुदामा का अटल, सहज सखा सम भाव।
दीन सुदामा जब मिले ,गया प्रेम तब जाग।।
◆प्रेम भक्ति के भाव में, दर्शन की बहु प्यास।
माता की ममता यही, पिता ह्रदय में खास।
प्रेम बिना बंधन नहीं, मिथ्या सारे भाव,
प्रेम ईश का रूप है, प्रेम अटल विश्वास।।
◆प्रेम शब्द पूरा नहीं, जाने सकल समाज।
त्याग बिना है प्रेम क्या? महज मनुज का काज।
अहम् भावना से सदा, प्रेम का होता नाश,
प्रेम त्याग का रूप है, *मधु* जीवन का राज।।
*मधु शंखधर 'स्वतंत्र'*
*प्रयागराज*
🌹🌹 *सुप्रभातम्*🌹🌹
सुधा मोदी तरू
हिमालय
———-
गीत
——
सामने तन के हर पल खड़ी हो गयी।
ये दुल्हन हिमशिखर से बड़ी हो गयी।
देके अपना सजन,करके माटी नमन
बन सुमन हिन्द की मंजरी हो गयी।
वेदना की धवल बिजलियाँ छा रही।
पर सघन बादलों से किरण आ रही।
शिव की गंग बनी जलझड़ी हो गयी।
ये दुल्हन हिमशिखर से बड़ी हो गयी।
सरहदों पे तिरंगा जो लहरायेगा।
सत्यघोष हिमालय भी दोहरायेगा।
भारती के लिये खुश घड़ी हो गयी।
ये दुल्हन हिमशिखर से बड़ी हो गयी।
सुधा मोदी तरू
बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - बिन्दु बाढ़ - पटना
गीतिका
छुपा लो सर अब अपना कहीं ये कट न जाए
जयचन्दों से हिन्दुस्तान कहीं ये बट न जाए।
तुम अपने ही घर आग लगाना अब छोड़ दो
बम ये बारुद तुम्हारे सर कहीं फट न जाए।
भीतर घात बहुतों कर लिए तुम नाकाब में
रखिये गहरी नज़र इस पे कहीं हट न जाए।
चुन - चुन कर मार दो गोली बंदूक तानकर
रहो सभी तैयार जब तक ये निपट न जाए।
फांसी दो उन सबको जो गद्दारी करते हैं
चैन से कहाँ सोना जब- तक ये सिमट न जाय।
क्यों खोते अस्तित्व लालच के चक्कर में तुम
ये वतन तेरा है भाई कसम मिट न जाए।
देख लो सीमा पर कितने वीर शहीद हुए
अपनी तो रक्षा कर कहीं दुश्मन लिपट न जाय।
बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - बिन्दु
बाढ़ - पटना
9661065930
आप भी अपना रचनाओं को गूगल पर प्रसारित करवाये फ्री में सम्पर्क सूत्र 9919256950
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, '"प्रेम"
हायकु
धूम्र कहर।
प्रदूषित प्रहर।
धुत्त शहर
नशे में चूर।
सागर की लहर।
रेत का घर।
गर्व का हल।
विचारों की चुहल।
हवा महल
विष को घोल।
सियासत में झोल।
तौल के बोल।
दंगे दमन।
अमन का चमन।
सत्य वचन।
शासन चंगा।
नंगे का नाच नंगा
दिल्ली का दंगा
मार से जाग।
अराजक ओ नाग।
अशान्ति भाग।
शान्ति या सत्ता ।
भिन्नता में एकता।
ओ,मानवता
झूठ की चाँदी।
जन जन की आँधी
महात्मा गांधी
चाय की प्याली।
खयालों का खयाली।
हवा हवाई।
हायकु
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, '"प्रेम"
स्व््
कौशल महंत "कौशल"
, *जीवन दर्शन भाग !!४१!!*
★★★
ममता का आँचल वही,
वही पिता का प्यार।
पढ़लिख वापस आ गया,
अपना घर संसार।
अपना घर संसार,
सभी को लगता प्यारा।
यह ही है वह धाम,
जहाँ मन रहे हमारा।
कह कौशल करजोरि,
वहीं रहती है समता।
प्रेम पिता का पुण्य,
मातु की वह ही ममता।
★★★
चाहत मन में है यही,
संग बँटाये हाथ।
सुधारने घर की दशा,
चले पिता के साथ।
चले पिता के साथ,
आय अर्जित करनी है। धन बिन बनी विशाल,
रिक्त खाई भरनी है।
कह कौशल करजोरि,
रहे क्यों जीवन आहत।
सुखमय हो घरबार,
पूर्ण हो सबकी चाहत।।
★★★
जाता है निष्काम मन,
स्वयं ढूँढने काम।
जो करते संसार के,
सब जनमानस आम।
सब जनमानस आम,
जरूरत करने पूरी।
कर कोई व्यापार,
करे कोई मजदूरी।
कह कौशल करजोरि,
तभी है घर चल पाता।
घर का जिम्मेदार,
काम करने जब जाता।।
★★★
कौशल महंत "कौशल"
,
नूतन लाल साहू
पुरानी यादें
जब गाड़ी,चलती थी
छुक छुक छुक छुक
दिल धड़कता था
धुक धुक धुक धुक
पलकों में,नींद न आती थी
सफ़र रात का हो या दिन का
प्रकृति की तस्वीरे,आती जाती थी
सुबह हो गया या शाम हो गया
इसकी आवाज बताती थी
जब गाड़ी चलती थी
छुक छुक छुक छुक
दिल धड़कता था
धुक धुक धुक धुक
छुन छून करे,जलेबी सी
यादे,आंनद के रस में डूब जाती थी
कुत्ते, भौं भौं कर चिल्लाते
खिड़कियां,सब खुल जाती थी
कितना सुन्दर था,उच्चारण
मानो मिसरी,सी घुल जाती थी
जब गाड़ी चलती थी
छुक छुक छुक छुक
दिल धड़कता था
धुक धुक धुक धुक
ऐसा करेंट सा लगा हमें
किस्मत का लड्डू फुट गया
आधुनिकी करण के चक्कर में
पुराना आंनद, सब भुल गया
किन शब्दों में, व्यक्त करें, उन यादों को
जो अतीत में,कहीं गुम हो गया
जब गाड़ी चलती थी
छुक छुक छुक छुक
दिल धड़कता था
धुक धुक धुक धुक
नूतन लाल साहू
नूतन लाल साहू
सलाह
हे पिंजरे की,ये मैना
यदि चाहता है,परम सुख तो
राम नाम,अनमोल रतन है
गया समय,नहीं आयेगा
फिर पाछे पछताएगा
भजन कर ले,राम नाम का
भवसागर पार हो जायेगा
तू महल बना,अटारी बना
कर कर जतन, सामान सजा
पल में वर्षा, आय गिरावेे
हाथ मसलत,रह जायेगा
भाई बन्धु,कुटुंब कबीला
सब संपत्ति,यही रह जायेगा
मतलब का सब खेल जगत में
पाप पुण्य ही,साथ जायेगा
हे पिंजरे की, ये मैना
यदि चाहता है,परम सुख तो
भजन कर ले, राम नाम का
भवसागर पार हो,जायेगा
तेरी दो दिन की,जिंदगानी है
काया माया तो, बादल जैसा छाया है
हरिनाम परम पावन,परम सुंदर
परम मंगल,चारो धाम है
राम नाम के,दो अक्षर में
सब सुख शांति, समाया है
जिसने भी,राम नाम गुण गाया
उसको लगे न,दुःख की छाया
हे पिंजरे की,ये मैना
यदि चाहता है,परम सुख तो
राम नाम,अनमोल रतन है
गया समय,नहीं आयेगा
फिर पाछें,पछताएगा
भजन कर ले,राम नाम का
भवसागर पार हो,जायेगा
नूतन लाल साहू
भरत नायक"बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
*"सपना"* (ताटंक छंद गीत)
----------------------------------------
विधान-१६+१४=३०मात्रा प्रति पद, पदांत SSS , युगल पद तुकबंदी।
...........................................
*नींद उड़ा दे जो आँखों की, मति को भी उकसाता है।
ठोस इरादा मन में जो हो, 'सपना' वह कहलाता है।।
सच्चा-साधक सत्कर्मो से, सपनों को पा जाता है।
ठोस इरादा मन में जो हो, 'सपना' वह कहलाता है।।
*उच्चाकांक्षा पाल रखे जो, धुन में कब सो पाता है?
होता आराम हराम सदा, कोलाहल मच जाता है।।
सतत चुनौती स्वीकारे जो, सपने सच कर जाता है।
ठोस इरादा मन में जो हो,
'सपना' वह कहलाता है।।
*जब भी देखो ऊँचा देखो, सपना बडा़ सुहाता है।
पूर्ण करे जी जान लगा जो, कर्मठ वह कहलाता है।।
पावक-पथ को पार करे जो, नव इतिहास बनाता है।
ठोस इरादा मन में जो हो,
'सपना' वह कहलाता है।।
*दम पर अपने नभ को नापे, पंख पसारे जाता है।
भरे बुलंदी जो नित निज में, शुचि-संदेश जगाता है।।
करता सपना जो वह पूरा, जग उसको दुहराता है।
ठोस इरादा मन में जो हो, 'सपना' वह कहलाता है।।
...........................................
भरत नायक"बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
..........................................
भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग)
*"महती महिमा मातु की"*
(कुण्डलिया छंद)
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
★महती महिमा मातु की, सीख सकल संसार।
सच्ची शुचि संवेदना, परम पुलक परिवार।।
परम पुलक परिवार, नेह की ज्योति जलाती।
देकर शुभ आशीष, मातु देवी कहलाती।।
कह नायक करजोरि, स्रोत प्रेमिल बन बहती।
सींचे सारी सृष्टि, मान माँ महिमा महती।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह,रायगढ़ (छ.ग.)
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग)
*शारदे! शुभ वरदान दे*
(गगनांगना छंद)
--------------------------------------------
विधान- १६+ ९= २५ मात्रा प्रतिपद, पदांत SlS, युगल पद तुकांतता।
-------------------------------------------
*शब्दों के संयोजन को माँ! सरगम-तान दे।
अतुल-अमल-अवधान शारदे! शुभ वरदान दे।।
साथ साधना के हिय सच्चा, भावन-भान दे।
घन-तम-अज्ञान नाश कर माँ! प्रभा-प्रतान दे।।
*स्वर- सुर समृद्ध सदा होवे, वर विश्वास दे।
शुचि-तुंग-तरंग-उमंग नयी, नित आभास दे।।
जड़ता का कर विनाश मन से, उर-उल्लास दे।
माता! हरकर संताप सभी, हृदय-हुलास दे।।
*बहा ज्ञान-गंगा कल्याणी, कर कल्याण दे।
संसार सकल सुखमय कर दे, भय से त्राण दे।।
जीवन का पथ आलोकित हो, ज्योति-प्रमाण दे।
जग-जीवन-धुन अनुरागित हो, पुलकित प्राण दे।।
*पुस्तक प्रतीक पुण्य-पाठ का, है तव हाथ में।
वीणा की धुन संदेश सदा, सुखकर साथ में।।
ज्ञान-विवेकी नीर-क्षीर का, भर दे माथ में।।
डोले जब धीरज तो देना, संबल क्वाथ में।।
*वेद-शास्त्र-उपनिषद सर्जना, ग्रंथ महान दे।
श्लोक-सूक्ति कल्याणी-कविता, नित नव गान दे।।
बुद्धि-प्रखर कर, हंसवाहिनी! परिमल ज्ञान दे।
परिपूरित झिलमिल तारों से, व्योम-वितान दे।।
****************************
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग)
****************************
डॉ सुलक्षणा अहलावत
कुपत्री औलाद
एक बार भी नहीं पूछी उसने खैरियत मेरी,
जब भी पूछी तो उसने पूछी वसीयत मेरी।
अब पछतावा होता है मुझे मेरी नादानी पर,
किसके लिए बर्बाद कर दी शख्सियत मेरी।
जिसे अपने सीने से लगाकर नाजों से पाला,
कमाकर चँद कागज पूछता है हैसियत मेरी।
देखो! एक कोने में रोती रहती है माँ उसकी,
सोचती है क्यों नहीं पूछता वो तबियत मेरी।
गलती उसकी भी नहीं है खता मुझसे हो गई,
घर सौंपकर उसे मैंने घटा ली अहमियत मेरी।
बेटी बेटी कहते जिसे थकी नहीं जुबान कभी,
उस बहु को खराब नजर आती है नीयत मेरी।
सच कहती थी "सुलक्षणा" मत ऐतबार करो,
मुझे नहीं बस वो चाहता था मिल्कियत मेरी।
पर क्या करता, पुत्र मोह में घिरा बाप था मैं,
लूट गया आशियाना, यही है असलियत मेरी।
©® डॉ सुलक्षणा
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
शब्द ब्रह्म है
************
शब्द से ही पीड़ा
शब्द से ही गम
शब्द से ही खुशी
शब्द से ही मरहम
शब्द से प्रेम
शब्द से दुश्मन
शब्द से दोस्ती
शब्द से ही प्यार
शब्द से ही समृद्धि
शब्द से ही दीनता
शब्द से निकटता
शब्द से ही दूरियाँ
शब्द से ही अर्पण
शब्द से ही समर्पण
शब्द से ही अमृत
शब्द ही विष
शब्द से ही नजदीकी
शब्द से ही दूरियाँ
शब्द से ही शीतलता
शब्द से ही उष्णता
शब्द ही बह्म है
शब्द ही कर्म है
शब्द ही जीवन है
शब्द ही मृत्यु है
*****************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
*********************
कुमार कारनिक छाल रायगढ़ छग
मनहरण घनाक्षरी
गौ माता
यह हमारी गौ माता,
दूध दही घी मिलता,
सेवा से मुक्ति मिलता,
गाय भैंस पालिए।
चरें गाय कहाँ पर,
कब्जा हर जहाँ पर,
बंधे पशुओं के पैर,
चारागाह छोड़िए।
देव रूप पूजी जाती,
अमृत दूध दे जाती,
घर घर बाटी जाती,
शुद्ध दुग्ध पीजिए।
ग्वाल बाल बन कर,
गौ माता की सेवा कर,
बंधु चारा दान कर,
गाय गोद लीजिए।
******
यशवंत"यश"सूर्यवंशी भिलाई दुर्ग छग
🌷यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷
भिलाई दुर्ग छग
🥀यश के दोहे🥀
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रहा नहीं यश मोल कुछ,कौढ़ी हुईं जुबान।
करना वाणी पर नहीं, कहाँ सबूत सुजान।।
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होते सज्जन सब नहीं, अपने सम इंसान।
पल पर पल में पलट यश,भूल चले ईमान।।
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
🌷यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷
भिलाई दुर्ग छग
संजय जैन (मुम्बई)
*साथ चाहिए..*
विधा : कविता
तुझे देखे बिना अब,
मुझे चैन पड़ता नही ।
बोले बिना अब मैं,
तेरे से रह सकते नही।
कुछ तो बात है तुममें,
तभी तो संजय तेरा है।
जिंदगी के सफर में,
बहुत आये और गये।
परन्तु तेरे जैसा दोस्त,
कम ही मिलता है।
जिसके साथ रहने से,
जिंदगी में कमल खिलते है।।
बहुत देखा जिंदगी में,
बहुतों के साथ रहकर।
बहुत सहा जिंदगी में,
लोगो के साथ रहकर।
कसम से कहता हूं में,
तेरे जैसा मिला ही नहीं।
तभी तो जिंदगी हसीन, बन गई तेरे आने से।
वरना गांव के बाहर का कुछ देखना ही नही था।।
जाने आने में ही आधी,
जिंदगी गमा दी हमने।
अब जो बची है जिंदगी,
उसे तेरे संग जीना है।
जो अब तक नही मिला
उसे तेरे साथ रहकर पाना है।
और जिंदगी का लुप्त,
हँसी खुशी से उठाना है।
अब तेरा क्या इरादा है,
मुझे अब तू बता दे।
और जिंदगी जीने का,
तरीका अपना बता दे।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
27/02/2020
निशा"अतुल्य"
आज भारत के महान सपूत चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि पर
श्रद्धांजलि नमन
🙏🏻
नमन देश के वीरों को
नई परिभाषा लिख डाली
दे प्राणों की आहुति
आजादी की नींव जिन्होने डाली
नतमस्त है हम उनके आगे
जीने की सही वजह बता डाली
नमन श्रद्धांजलि 🙏🏻
निशा"अतुल्य"
सुनील कुमार गुप्ता
कविता:-
*"गम"*
"छट जायेगी गम की बदली,
होगी खुशियों की -
जीवन में बरसात।
खिलेगा का जीवन में साथी,
अपनत्व का इन्द्रधनुष-
मिट जायेगा गम का साया।
साथी साथी होगा जो साथी,
चलेगा संग देगा हर पल -अपनत्व का अहसास।
मिटेगी कटुता जीवन से,
महकेगी जीवन बगिया-
छायेगा मधुमास।
होगी न गम छाया कही,
जीवन में पग पग -
गहरायेगा विश्वास।
छट जायेगी गम की बदली,
होगी खुशियों की-
जीवन में बरसात।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःः
सुनील कुमार गुप्ता
सत्यप्रकाश पाण्डेय
मुझे चरणों में जगह दो ओ बंशी वाले
मुझे अपना बनालो ओ श्याम मतवाले
हृदय बसी तेरे मूरत तुम्हें भूल न पाऊँ
सोते जगते स्वामी बस तेरे गुण गाऊं
मिले आशीष तेरा घेरें न बादल काले
मुझे चरणों में जगह दो ओ बंशी वाले
ऋणी हूँ भगवन तेरा मानव देह पाई
अपना अपना चाहा किन्ही न भलाई
जैसा भी हूँ दीन हीन तुम्ही रखवाले
मुझे चरणों में जगह दो ओ बंशी वाले।
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी
हे नाथ नारायण वासुदेवा🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏🙏
सत्यप्रकाश पाण्डेय
एस के कपूर श्री हंस।बरेली
*तेरा कल ही तेरा काल बन*
*जायेगा।मुक्तक।*
मत दो तुम नफरत से जवाब
तेरा ही सवाल बन जायेगा।
तेरा अहम का घेरा ही तेरे
लिये इक बवाल बन जायेगा।।
बो कर बबूल का पेड़ तुम
आम की उम्मीद मत रखना।
जान लो तेरा आने वाला कल
ही तेरा काल बन जायेगा।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर श्री हंस।बरेली
*बचपन(हाइकु)*
नानी का घर
छुट्टी में मौज मस्ती
न कोई डर
महंगे सस्ते
चंदा मामा दूर के
पास लगते
फिक्र की बात
दूर तक चिंता न
ये है सौगात
खेल खिलौना
बचपन यूँ बीते
हँसना रोना
रूठो मानना
बचपन खजाना
न है हराना
ये बचपन
पाते बच्चे सभी का
अपनापन
ये बच्चे सारे
मात पिता के तारे
बहुत प्यारे
*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली
*दिया बनो,दियासलाई नहीं*
*मुक्तक*
कुछ लोगों का काम ही है
दुर्भावना में जलते रहना।
दूसरों को संताप देकर
स्वयं ही मचलते रहना।।
घृणा को पालना पोसना
अधिकार बनता उनका।
किसी और को उठाना नहीं
नर्क में स्वयं भी ढलते रहना।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली
*क्रोध और अहंकार(हाइकु)*
क्रोध अंधा है
अहम का धंधा है
बचो गंदा है
अहम क्रोध
कई हैं रिश्तेदार
न आत्मबोध
लम्हों की खता
मत क्रोध करना
सदियों सजा
ये भाई चारा
ये क्रोध है हत्यारा
प्रेम दुत्कारा
ये क्रोधी व्यक्ति
स्वास्थ्य सदा खराब
न बने हस्ती
क्रोध का धब्बा
बचके रहना है
ए मेरे अब्बा
ये अहंकार
जाते हैं यश धन
ओ एतबार
जब शराब
लत लगती यह
काम खराब
*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली*
मो 9897071046
8218685464
राजेंद्र रायपुरी
😌😌 सबसे बड़ा सवाल 😌😌
दिल्ली तेरे दिल दिखें,
गहरे-गहरे घाव।
नादानों ने कर दिया,
जाने क्यों पथराव।
भाई-चारे का किया,
नादानों ने त्याग।
चारों तरफ लगा रहे,
हमने देखा आग।
दहशतगर्दों ने किया,
कैसा तेरा हाल।
ऐसा लगता आ गया,
जैसे हो भूचाल।
व्यथित सभी का मन हुआ,
देख बुरा ये हाल।
किसको इससे क्या मिला,
सबसे बड़ा सवाल।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
......................माहजबी......................
आशिक़ के लिए माशूका माहज़बी होती है।
भले ही गैरों के लिए वो अजनबी होती है।।
हम देखते हैं सबको अलगअलग नज़रों से;
जो दिल के करीब हो वो हमनशी होती है।।
ज़माना जो जी चाहे कहे , परवाह नहीं ;
दोनों एक दूसरे की जिंदगी होती है।।
प्रेम का एहसास एक नायाब जज्बा है ;
दोनों के एक दूसरे से दिल्लगी होती है।।
प्रेम भरोसा और विश्वास पर टिका होता है;
जरा भी डगमगाए तो दुश्मनी होती है।।
प्रेम को कभी भी पैसे से न तौला जाए ;
ऐसा करना बहुत बड़ी दरिंदगी होती है।।
इस बात के तो हम कायल हैं "आनंद" ;
सच्चा प्यार तो सबसे बड़ी बंदगी होती है।।
------------ देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
महेश राजा महासुमन्द छग
मेरा जन्मदिन
आज जन्मदिन था।अच्छा गुजरा दिन। सभी परिवार जन,आत्मीय जनों की शुभकामनाएं प्राप्त होती रही।
एक मित्र ने कहा,-"क्या जन्मदिन मनाना,जीवन का एक बरस कम हो गया।एक दार्शनिक महोदय भी लिख गये है।
मैं थोडा अलग सोचता हूँ।कि जीवन में अनुभवों के एक बरस का ईजाफा हुआ।
जीवन के बांसठ बसंँत देख लिये।अब तो सब कुछ बोनस जैसा ही है।
सेवानिवृत हुए दो बरस हो गये।दो तीन माह बैचेनी मे कटे,पर अब एक आत्मिक सुकून महसूस होता है।
पहले जीने के लिये समय कम पडता था।अब समय ही समय है।अपने आपसे मिल पाने का सुख।अध्यात्म से जुड पाने का सुख।और सबसे अच्छी बात लिखने के लिये समय ही समय।बिंदास लिख रहा हूँ।लोगो को पसंद भी आ रहा है।
जिम्मेदारी या सारी पूर्ण है।बच्चें सुख से है।कभी बैंगलोर कभी गुजरात।
आज दिन भर हनुमानजी के सानिध्य मे बीता।सबके लिये सुख ही मांगा।
हां,देश मे एक बडी घटना हो रही है,मन विचलित है।पर जो होनी है,अवश्यंभावी है।उसे कोई नहीं रोक सकता।
पीछे मूड़कर देखता हूँ तो लगता है,बहुत कुछ पीछे छूट गया।बहुत कुछ खो गया।फिर मन कहता है,जो पास है,साथ है उसे समेट संभाल कर रहो।
बच्चों ने बहुत कोशिश की खुश रखने की।ढ़ेर सारे गिफ्ट, केक आदि भेजे।पर,सब साथ न थे तो अकेलापन महसूस हुआ।
कुश से फोन पर बात हुई अच्छा लगा।पूछा,बड़े होकर क्या गिफ्ट दोगे तो वह मासूमियत से बोला,"दादा कार।फिर तुरन्त बोला,अरे दादा,आप कार कहाँ चला पाओगे ,मैं ही चला कर मंदिर ले चलूंगा।
सब कुछ अच्छा ही लग रहा है।जीवन की दिशा तो स्वयं ही चुननी है।क्या खोया,क्या पाया वाले भाव उठते रहते है।पर मेरा पोता हमेंशा कहता है ,-"सब बढिया है...सचमुच सब बढिया ही तो है।
हांँ बीते दिनों को आदरणीय हरिवंशराय बच्चन के शब्दो मे कुछ यूं प्रस्तुत कर अपनी वाणी को विराम देता हूंँ।
सोचा करता बैठ अकेले
गत जीवन के सुख-दुःख झेले
दंँशनकारी सुधियों से मै उर के छाले सहलाता हूँ।
ऐसे मे मन बहलाता हूँ।
नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम।
उर के घावों को आंसू के छालों से नहलाता हूं।
ऐसे मैं मन बहलाता हूं*।
महेश राजा महासुमन्द छग
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल झज्जर (हरियाणा )
बस यूं ही.....
जब तन्हा हुआ
अपनी रोज़ाना की दिनचर्या से
कुछ भी महसूस ना हुआ
जैसे संवेदना क्षीण हो गयी
सेहर मे मगन रहा
दोपहर में गुम रहा
आयी जो शाम तो
फिर मुझसे रुका ना गया
चला गया ऊँची किसी छत पर
और निहारने लगा चाँद -तारों को
मन में सवाल उठा
जैसे मानव सोच का कोई अंत नहीं
वैसे ही आकाश का कोई अंत नहीं
दूर तलक चाँद रूपी मानव
और बाकी तारों भरी दुनियादारी
वही रात -ए -निशा
वही ज़िन्दगी
और सुकून ढूंढ़ते लोग
लेकिन ये सच है "उड़ता "
मनुष्य रहता है अकेला तमाम उम्र.
✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
झज्जर (हरियाणा )
मासूम मोडासवी
क्या दिलमे है ये बात बताइ नहीं जाती
बस इतनी हकिकत भी जताइ नही जाती
अब तेरे सीवा किससे निभायेंगे वफा हम
धडकन जो मेरे दिल की सुनाइ नहीं जाती
युं छाये से रहते हो खयालों मे मेरे तुम
हमसे तो अब ये बात छुपाई नही जाती
इक तुम हो जमाने मे हमे अपने लगे हो
चाहत है ये अयसी जो दबाई नही जाती
मासूम हमें आज नजर अंदाज किया है
दिलसे हमारे उसकी खुदाई नही जाती
मासूम मोडासवी
बलराम सिंह यादव पूर्व प्रवक्ता B.B.L.C.INTER COLLEGE KHAMRIA PANDIT. धर्म एवम अध्यात्म शिक्षक
एक अनीह अरूप अनामा।
अज सच्चिदानंद पर धामा।।
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना।
तेहि धरि देह चरित कृत नाना।।
।श्रीरामचरितमानस।
जो परमेश्वर एक हैं, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है,जो अजन्मा,सच्चिदानन्द और परमधाम हैं और जो सबमें व्यापक एवं विश्वरूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
भावार्थः---
इन पंक्तियों में गो0जी ने ईश्वर के दस विशेषण वर्णित किये हैं।यथा,,
1--एक अर्थात अकेले ही सर्वत्र होने से परमेश्वर एक अथवा अद्वितीय है।मानस में भी कहा गया है--
जेहि समान अतिशय नहिं कोई।
2--अनीह अर्थात इच्छा या चेष्टा रहित,सदा एकरस अथवा अनुपम।
3--अरूप अर्थात जिसका कोई रूप नहीं है।अथवा जो सभी रूपों में व्याप्त है।
4--अनामा अर्थात जिसका कोई नाम नहीं है अथवा जिसके अनन्त नाम हैं।और जो राशि,लग्न,योग,नक्षत्र, मुहूर्त्त एवं सर्वक्रियाकाल से रहित है।
5--अज अर्थात जो अजन्मा है अथवा जो जन्ममरण से रहित है।वह कभी जन्म नहीं लेता है, बल्कि प्रकट होता है।यथा,,
विश्वरूप प्रगटे भगवाना।
भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसिल्या हितकारी।
6--सच्चिदानन्द अर्थात सत्य,चेतन और आनन्द से परिपूर्ण।सत अथवा सत्य अर्थात जिसका कभी नाश नहीं होता है।चेतन अर्थात सर्वज्ञ अथवा सब कुछ जानने वाला।आनन्द अर्थात सभी दुखों से रहित।अथवा पूर्णरूपेण हर्ष व शोक से रहित सदा सर्वदा एकरस अखण्ड आनन्दरूप।
7--परधामा अर्थात दिव्यधाम वाले अथवा जिनका धाम सबसे परे है और जो सबसे श्रेष्ठ, तेजस्वी व प्रभाव वाला है।
8--व्यापक अर्थात जो परमाणु व अणुरूप से समस्त ब्रह्माण्डों के सभी प्राणियों में व्याप्त है।
9--विश्वरूप अर्थात जो विराटरूप से सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है।यथा,,
विश्वरूप रघुबंसमनि करहु बचन बिस्वास।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।
पद पाताल सीस अज धामा।
अपर लोक अंग अंग बिश्रामा।।
भृकुटि बिलास भयंकर काला।
नयन दिवाकर कच घन माला।।
जासु घ्रान अश्विनीकुमारा।
निसि अरु दिवस निमेष अपारा।।
श्रवन दिसा दस बेद बखानी।
मारुत स्वास निगम निज बानी।।
अधर लोभ जम दसन कराला।
माया हास बाहु दिगपाला।।
आनन अनल अम्बुपति जीहा।
उतपति पालन प्रलय समीहा।।
रोमराजि अष्टादस भारा।
अस्थि सैल सरिता नस जारा।।
उदर उदधि अधगो जातना।
जगमय प्रभु का बहु कलपना।।
अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर बिश्वरूप भगवान।।
10--भगवान अर्थात सभी की उतपत्ति, पालन और सँहार करने वाला,सभी ऐश्वर्यों से युक्त, सम्यक वीर्यवान,यशवान,श्रीवान,
ज्ञानवान व गुणवान तथा वैराग्यवान।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
मुझको मत ठुकराना प्रिये
********************
जीवन की मादक घड़ियों में,
मुझको मत ठुकराना प्रिये,
नव ऊषा लेकर आएगी,
जब मधुमय जीवन लाली,
कुहू- कुहू कर बोलेगी,
जब कोयलिया काली -काली।
नव रस से भर जाएगी,
जब बसन्त की डाली -डाली,
लहरेगी किसलय-किसलय,
पावन यौवन की हरियाली,
ऐसी मधुमय घड़ियों में,
तुम विरह गीत न गाना प्रिये।
छोटी -छोटी मन -रंजन,
और हरी -हरी द्रुम लतिकाएँ,
प्रातः मोती के चमकीले कण,
सलाज से भर लाएँ,
मादक यौवन में जब भौंरे
उन पर गुन-गुन कर खाएँ।
लहर -छहर कर प्रकृति विचरती,
हो जब कोमल रचनाएं,
तब ऐसी मधुमय में,
पल भर तुम मुस्काना प्रिये,
चूम धरा जब हंसती हो,
नटखट बदली सावन वाली।
नाचें मयूरी देख घटाएँ,
अम्बर में घिरती काली,
पी-पी के स्वर में चातक ,
जब दे उंडेल स्वर की प्याली,
ऐसी सुखदायी घड़ियों में पास तनिक तुम आना प्रिये।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल संपर्क - 9466865227 झज्जर (हरियाणा )
दो और दो पाँच....
सरकारी स्कूल की आँच
जैसे बच्चों के भविष्य काँच
एक दिन इंस्पेक्टर करने आए जाँच
एक छात्र से पूछा
"दो और दो कितने हुए "? "
छात्र ने कहा पाँच
मास्टर आगे आया
पीठ थपथपा छात्र को बैठाया
इंस्पेक्टर बोला
"अरे ओ सत्यानाशी
गलत गणित पर देता शाबाशी "
मास्टर मिमियाने लगा
"क्यों होते हो नाराज़ "? "
बतला दूंगा आपको इस छात्र का राज.
कल जब आप नहीं आए थे
तब दो और दो छः बतलाये थे
आज बतलाये पाँच,
प्रगति करता जाएगा
कल हुजूर यह स्वतः
चार पर आ जाएगा.
अगर यही हाल रहा "उड़ता "
तो समाज कहाँ चला जाएगा.
द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
संपर्क - 9466865227
झज्जर (हरियाणा )
udtasonu2003@gmail.com
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल संपर्क - 9466865227 झज्जर (हरियाणा )
जाना चाहा...
जब उसने मुझसे दूर जाना चाहा.
दिल ने उसे रोककर, कुछ कहना चाहा.
उसने हंसकर कह दिया जो अलविदा,
दिल ने अकेले में आँसू बहाना चाहा.
उसके बिछुड़ने का सबब दर्द दे रहा,
दिल कुछ सोचकर बहुत घबराया.
छोड़ कर चला गया साथ वो मेरा,
जैसे मेरी पूरी ज़िन्दगी ले गया.
उसका वही अक्स हर वक़्त मेरे सामने,
उसके जाते -जाते मैंने हाथ हिलाना चाहा.
नज़रें उसे ओझल होते देख थक गयी,
मैंने फिर भी एक बार मुस्कुराना चाहा.
मत रोक जाने वाले को "उड़ता ",
तुमने लफ़्ज़ों को जोड़ नज़्म बनाना चाहा.
द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
संपर्क - 9466865227
झज्जर (हरियाणा )
udtasonu2003@gmail.com
श्याम कुँवर भारती [राजभर] कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,
हिंदी गजल- अब सफा कीजिये |
टूटे रिश्तो मे जान बाकी हो अगर ,
प्यार से सींचकर अब सफा कीजिये |
काँच के जैसा होता है दिल का रिस्ता यहा |
टूट न जाये दील अब बचा कीजिये |
लाखो मिल जाएँगे सबको सबकी जवानी मे |
ढल जवानी हमसफर अब ढूंढा कीजिये |
तेरी दौलत के खातिर है चाहने वाले कई |
करता कौन मोहब्बत अब पता कीजिये |
हुशनों जवानी के है सब भूखे यहा |
जल जाये जवानी जुल्मो न खता कीजिए |
दिल की बात दिल मे न रखिए जनाब |
गर हो शिकायत कोई अब रफा कीजिये |
मिल गया जो दिल का रिश्ता उसे कबुल करो |
गर हो गई भूल कोई अब दफा कीजिये |
टूटे रिश्तो मे जान बाकी हो अगर ,
प्यार से सींचकर अब सफा कीजिये |
श्याम कुँवर भारती [राजभर]
कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,
मोब /वाहत्सप्प्स -9955509286
सुनील कुमार गुप्ता
कविता:-
*"स्त्री बड़ी महान"*
"गरीब के चलते वो तो,
निकली घर से-
करने मज़दूरी का काम।
कड़ी धूप में सिर पर बोझा,
होठो पर है-मुस्कान-
ये स्त्री बड़ी महान।
मुस्कान के पीछे छिपी
खुशी,
मिलेगा इससे अन्न जल -
फिर करेगी वो आराम।
थक भी जाये वो तो भी,
गरीबी से होगी न परेशान-
होठो पर बनी रहेगी मुस्कान।
गरीबी के चलते वो तो,
निकली घर से-
करने मज़दूरी का काम।।"
सुनील कुमार गुप्ता
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी "
सुप्रभात:-
विश्वास और कड़ी मेहनत असफलताओं को हटाती है।
जिंदगी में हमें नए-नए द्वार सफलताओं के दिखाती है।
-----देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी "
एस के कपूर श्री* *हंस।।।।।बरेली
*बस प्रेम का इज़हार हो तेरे किरदार में।*
*।।।।।।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।।*
बस महोब्बत का ही पैगाम
हो तेरे सरोकार से।
बस अच्छी बातों का बखान
हो तेरे इज़हार से ।।
सवाल जिंदगी से मत करो कि
क्या दिया है उसने।
बस बनो तुम सबके मेहरबान
हो सके तेरे किरदार से।।
*रचयिता।।।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।बरेली।।।।।।।।।।।।।*
मोब 9897071046।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।
एस के कपूर श्री हंस।* *बरेली।*
*विविध हाइकु।।।।।।*
ये पहचान
अच्छे दोस्तों की है
होते कुर्बान
सफर जारी
चलना हिम्मत से
ये है तैयारी
जो हम बोते
पाते वैसा ही हम
हंसे या रोते
ये तकदीर
तेरे अपने हाथ
बने तस्वीर
हिचकी आना
बुला रहा कोई है
दूर न मकां
बुरा कोई ना
नज़रों का फेर है
एक सा समां
हाथ का खेल
पत्थर बदनाम
मन की रेल
कैसा जमाना
करे पर भरे ना
ऐसा जमाना
*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर श्री हंस।* *बरेली।*
*जीवन//यूँ ही जीने का नाम नहीं है।*
*मुक्तक*
जीवन एक कर्म शाला कोई
ऐशो आराम नहीं है।
है ये संघर्ष का तपोवन कोई
जंग का मैदान नहीं है।।
मत पलायन से बदनाम कर
इस अनमोल जीवन को।
बिन पूरे करे सरोकारों को प्रभु
का उतरता एहसान नहीं है।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस।*
*बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
संजय जैन (मुम्बई)
*क्यो बुला रहे हो*
विधा : कविता
दिल की गैहराईयों,
से मुझे देखो।
सामने में नजर आऊंगा।
चाँद को पाने के लिए,
कही भी आ जाऊंगा।
बस दिलसे एक बार,
आवाज़ दो हमें।
मैं खुद तुम्हारे समाने,
हाजिर हो जाऊंगा।।
न हम गलत है,
और न हमारी सोच।
न तुम गलत हो और,
न ही में समझता हूँ।
ये तो दिल की बातें है,
जो हम दोनों करते है।
जब प्यार हुआ है तो,
निभाएंगे भी हम दोनों।
और जब मिलेंगे तो,
दिलके अरमान लुटाएंगे भी।।
होठों पे आज कल,
बहुत हंसी है।
तेरे दिल में भी
बहुत खुशी है।
कुछ तो तेरे दिल में,
हलचल मच रही है।
तभी मेरे को मिले को,
तुम बुला रही हो।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
26/02/2020
राजेंद्र रायपुरी
सिंह बिलोकित छंद पर एक मुक्तक ----
धन के बल जिनको वोट मिले।
उनके मन में ही खोट मिले।
होती है उनकी चाह यही,
दस के बदले सौ नोट मिले।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
सुनील कुमार गुप्ता
कविता:-
*"पर्यावरण"*
"इतने लगाये वृक्ष,
बनी रहे हरियाली-
बढ़ते रहे वन।
प्रात:भ्रमण को मिले,
सार्थकता-
तृप्त हो नयन।
शुद्ध हो वातावरण,
कम हो प्रदूषण-
शांतिपूर्ण हो शयन।
महकता रहे जीवन में,
उपवन सारा-
सुगन्धित हो सुमन।
मिलते रहे फल- फूल-औषधी,
सार्थक हो जीवन-
बलिष्ठ हो तन-मन।
भटके न नभचर कही,
आसरा मिले उनको-
सार्थक हो पर्यावरण।
इतने लगाये वृक्ष,
बनी रहे हरियाली-
बढ़ते रहे वन।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःःः
सत्यप्रकाश पाण्डेय
काहे का गरूर करे तू काहे अभिमान है
चार दिन की जिंदगी काहे का गुमान है
रूप रंग सौंदर्य देख के जो तू इतराबें है
ढल जाये जवानी फिर काम न आबें है
बन्द आँखों से देख चहुओर सुनसान है
चार दिन की जिंदगी काहे का गुमान है
आये बलशाली बहुत धूल में मिल गये
नामोनिशा न शेष जीवन उनके गल गये
हरि को तू भजले बन्दे होगा निर्वाण है
चार दिन की जिंदगी काहे का गुमान है
यहां नहीं कोई तेरा मतलब का संसार है
जीते जी के रिश्ते सारे और न आधार है
राधे कृष्ण रट ले मानव होगा कल्याण है
चार दिन की जिंदगी काहे का गुमान है।
श्रीराधे कृष्ण🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹🌹🌹
सत्यप्रकाश पाण्डेय
कालिका प्रसाद सेमवाल रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
हे करूणानिधान दया करो
********************
हे करूणानिधान अपनी कृपा बरसाओं
हमें सत्य की राह बताओ
कभी किसी को सताये नहीं
ऐसी सुमति हमें देना प्रभु।
हे करूणानिधान दया करो
अपनी कृपा बनाए रखें
हम अज्ञानी तेरी शरण में
हमें सही राह बताना प्रभु।
ये जीवन तुम्ही ने दिया है
राह भी तुम्हें बताओ प्रभु
हो गई है भूल कोई तो
राह सही बताओ प्रभु ।
कभी किसी बुरा न करुं
दया भाव हो हृदय में
मस्तक तुम्हारे चरणों में हो
ऐसी बुद्धि दे दो प्रभु।
हे करूणानिधान दया करो
जग में न कोई किसी जीव को
पीड़ा कभी न पहुंचाएं प्रभु
ऐसी सब की बुद्धि कर दो।
**************************
कालिका प्रसाद सेमवाल
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
कैलाश , दुबे होशंगाबाद
ऐ गम के बादलों तुम दूर चले जाओ ,
वहीं खड़े रहो अभी मेरे नजदीक न आओ ,
जो लिखा हो मेरे नसीब में लिखा रहे ,
पर पहले से मेरे नजदीक तो न आओ ,
कैलाश , दुबे
भुवन बिष्ट रानीखेत( उत्तराखंड
*प्रभात वंदन*
नव दीप जले हर मन में,
अब तो भोर हुई हुआ उजियारा।
लगे विहग धरा में चहकने,
रवि किरणों से जग सजे सारा।।
बहे पावन सरिता का जल,
हिमशिखरों पर लालिमा छायी।
बनकर ओस की बूँदें छोटी,
जल मोती यह मन को भायी ।।
भानू की अब चमक देखकर,
छिप गये तारे हुआ उजियारा।
सजाया है जग निर्माता ने,
नभ जल थल सुंदर प्यारा।।
......भुवन बिष्ट
रानीखेत( उत्तराखंड)
वैष्णवी पारसे छिंदवाड़ा
आँखो में भर आया पानी
बेटी जीवन की यही कहानी
रो रोके हो गया बुरा हाल
बाबुल की बिटियाँ चली ससुराल
नन्ही से चिड़ियाँ चली ससुराल
कल तक तो खेली इस आँगन में
तितली बन मंडराई उपवन में
पीछे छुट गई है बगिया
मेरी सारी सहेली सखियाँ
टुकटुक मैं जिनको रही निहार ।
बाबुल की बिटिया चली ससुराल ।
नन्ही सी चिड़ियाँ चली ससुराल ।
छोटी छोटी बातों पे रुठना मनाना
बाबा तेरे संग में वो हँसना हँसाना
माँ की वो मीठी लोरी
संग में तेरे खेली होरी
यादों का उठा हैं भूचाल ।
बाबुल की बिटिया चली ससुराल ।
नन्ही सी चिड़ियाँ चली ससुराल ।
जिस आंचल में पली वो हो रहा पराया
छूट रहा सर से अपनो का साया
कैसी आई ये घडि़या
पल भर में बीती सदियां
दिल में घिरे कितने सवाल ।
बाबुल की बिटिया चली ससुराल ।
नन्ही सी चिड़ियाँ चली ससुराल ।
वादा है मै सबका मान बढाऊंगी
रिश्तो को सारे मन से निभाऊंगी।
तेरी ही सिखाई बाते
याद रखूंगी दिन राते
रखूंगी सबका दिल से ख्याल ।
बाबुल की बिटिया चली सुसुराल ।
नन्ही सी चिड़ियाँ चली ससुराल ।
वैष्णवी पारसे
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
तमाम इल्म जानता हैं फ़क़त खूब अदीब है वो।
रहे चाहें दूर मुझसे मगर बहुत करीब है वो।
बदौलत उसके सभी सुख मयस्सर अब भी हमें हैं।
खुदा का हैं नूर रुख पर मिरा रोज नसीब है वो।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
कैलाश , दुबे होशंगाबाद
यूं चिराग जलते रहे रात भर ,
हम उजाले कै तरसते रहे रात भर
यूं ही सहमे बैठे रहे हम रात भर ,
जब हवा का झोंका आता वहां ,
डरते रहे और सहमते रहे रात भर ,
कोई न अपना था वहां पर ,
बैठे रहे हम उजाले को तरसते रात भर ,
कैलाश , दुबे
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक स्वरचित नई दिल्ली
दोहा: “🌦️पत्थर की बरसात"🌦️
दंगाई चारों तरफ़ , मचा हुआ कोहराम।
शुभ प्रभात क्या नमन हो,चहुंमुख रोड विराम।।१।।
पत्थर की बरसात में , घायल हैं जनतंत्र।
लाचारी सरकार में , वोटबैंक षड्यंत्र।।२।।
जला रहे जन सम्पदा , सार्वजनिक संसाध।
निर्भय दावानल बने , दंगाई निर्बाध।।३।।
बची जान कल किसी तरह , फंस दंगाई फांस।
अमन चमन वीरान सा , रुकी हुई थी श्वांस।।४।।
मत कोसों रक्षक वतन , पोषो मत गद्दार।
पा सुकून हो सो रहे , गाली देते यार।।५।।
पूछो हम पे क्या बीतती , बना आज मज़बूर।
दंगा से घायल पथी , हूं घर से मैं दूर।।६।।
तोड़ो फोड़ व आगजनी , सौदागर बन मौत।
दहशत का आलम कुटिल,साजीशें बन सौत।।७।।
बेशर्मी बन बेहया , नेताओं की फ़ौज।
भड़काते उन्माद को , घर में सोतेे मौज़।।८।।
शरणागत पर गेह में , बना आज मैं मीत।
शैतानी अवरोध से , पड़ दहशत भयभीत।।९।।
सरकारी सब महकमा , पड़ा सोच में आज।
बदनामी दोनों तरफ़ , गिरे मौन बन गाज़।।१०।।
पता नहीं कबतक जले , मानवता सम्मान।
कवि निकुंज विरुदावली ,गाएं समरस गान।।११।।
कुर्बानी जनता वतन , चढ़ा भेंट सरताज।
रतन लाल तज जिंदगी, बचा देश का लाज़।।१२।।
पत्थरबाजी बारिशें , भारत लहूलूहान।
समरसता प्रीति दफ़न , मुस्काता शैतान।।१३।।
मौतें होती एकतरफ़ , सजे चौकड़ी मंच।
ओछी चर्चा पटल पर , करें न्याय सरपंच।।१५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक स्वरचित
नई दिल्ली
गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
"अग्निस्तान"
""""""""""""""""""
कभी कश्मीर तो कभी गुजरात जला
कभी असम तो कभी केरल जला
कभी राजस्थान तो कभी महाराष्ट्र जला
कल यू.पी. तो आज दिल्ली जला
ये कैसी आग है.....?
कभी अराजकता के नाम से...
तो कभी सियासत के नाम से जला
डर है मुझे इस बात की.....
कही पूरे हिंदुस्तान ना जल जाए
शांति का सन्देस देने वाला...
कही अग्निस्तान में ना बदल जाए ।।
गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
©®
श्याम कुँवर भारती (राजभर ) कवि /लेखक /गीतकार /समाजसेवी
भोजपुरी पारंपरिक होली गीत 5 -स्वंबर रचावे जनक जी
सिया दिहली मलवा राम गले डाली ,
खूब भावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
बड़े बड़े राजा जुटले जनकपुर |
ज़ोर लगाई न तोड़ले धनुषवा जनकपुर |
रावण भी हारी सिर नवावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
मुनि विश्वामित्र संगवा राम-
लक्षमन मिथिला मे अइले |
फुलवा लोढ़त भेंट सिया
राम मिथिला मे भईले |
दोनों नैना से नैना लड़ावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
जनकनंदनी सिया शिव पारवती के पूजे |
बगिया से चुनी चुनी फूल मलवा मे गूँथे |
मिलिहे राम वर उनके हाथ
जोड़ी मनावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
गुरु के चरणीया मे सिरवा झुकाई |
शिव ध्यान करी राम लिहले धनुषवा उठाई |
तोडी धनुषवा राम शिव गोहरावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
अइले फगुनवा खेल होली राम अयोध्या |
रंग अबीर लेई खेले भरत तोडी तपस्या |
लखन बजरंगी संगी होलिया खेलावे जनकपुर |
श्याम कुँवर भारती (राजभर )
कवि /लेखक /गीतकार /समाजसेवी
मोब।/व्हात्सप्प्स -9955509286
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
...........जाने क्या चुपके से...........
जाने क्या चुपके से आपने कह दिया।
आपने कह दिया वो मैंने सह लिया।।
आपने मुझे तो दिल से निकाल फेंका;
एक कोने में आपके मैंने रह लिया।।
बेतरतीब सी हो गई थी जिन्दगी मेरी ;
किसी हाल में जिंदगी मैंने गह लिया।।
न किसी का साथ,न ही कोई भरोसा ;
जैसे बहाया वक़्त ने,मैंने बह लिया।।
दिल के मारे हम बेचारे हैं प्यारे दोस्त;
मन के अंदर गुस्से को मैंने दह लिया।
हमेशा आपसे सुलह की कोशिश में ;
आपने जो कह दिया मैंने वह किया।।
उम्मीद तो है कभी तो मिलेंगे"आनंद";
इसलिए ख्यालों को मैंने तह किया।।
----- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
अभिलाषा देशपांडे
माँ
-दुआये
दुआये माँ की , कम नहीं होती
माँ तो माँ , खुदासे कम नहीं होती!
माँ कल खुदासे जबाबतलबी करती रही
मुश्किले क्यों मेरे बेटे कि कम नहीं होती!
एक दिन मेरा बेटा भी सिकंदर बनेगा
माँ की उम्मीदे कभी कम नहीं होती!
मेरा पहला गुनाह और माँ का वो थप्पड
सबक देनेमें माँ को शरम नहीं होती!
मेरा दावा हैं कि, दुनिया में कोई भी चीज
माँ के दिल से ज्यादा नरम नहीं होती!
स्वरचित
अभिलाषा
इन्दु झुनझुनवाला जैन बंगलौर
होरी लोकगीत
मन की बतियां ,कांसे कहूँ सखी री ।
पिया तो सुनत ,नाही कोई बतियां ।
हम तो सखी री, देखे नाही दुनिया।
पिया तो हमारे भएल परेदेसिया।
मन की बतियां -----
प्यार की भाषा अँखियाँ करे सखी,
बोले तो कैसे, बोले ऐसी बतियाँ।
मन की बतियां -----
हमरे पियाजी अंगरेजी मा बोले,
समझ परे नाही मोहे उनकी पतियाँ।
मन की बतियां -----
चाकी पिसत सारी उमर गुजारी रे,
हमसे चलत अब नाही फटफटिया।
मन की बतियां -----
पाउडर लिपिसटिक कबहुँ ना जानो,
कईसे रिझाउँ ,बनढन के सजनिया।
मन की बतियां ---'
अब तो सखी री,आँख नाही लागे,
विरहा की आग मे, जलूँ सारी रतिया।
मन की बतियां -----
होरिया के रंग में भीजे मोरा तन सखी,
प्रीत के रंग में तोहे रंग दूँ सजनवा।
मन की बतियां---------
इकबार साजन गलवा लगा ले रे,
उमर भर ना माँगे कछु और मनवा।
मन की बतियां ---
इन्दु झुनझुनवाला जैन
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
हिन्दी चित्रपटीय गीतों में छंद
साहित्य, किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम है। इस नश्वर संसार में जितना भी साहित्य मिलता है उनमें सर्वाधिक प्राचीनतम ’ऋग्वेद’ है और ऋग्वेद को छंदोबद्ध रूप में ही रचा गया है है। यह इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशेष कथन हेतु छंदो का प्रयोग होता था। छंद को यदि पद्य रचना का मापदंड कहें तो किसी प्रकार की अतिशयोक्ति न होगी। एक बात और है कि बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को कदापि साकार नहीं किया जा सकता।
*वैदिकच्छन्दसां प्रयोजनमाह आचार्यो वटः –*
*स्वर्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं वृध्दिकरं शुभम् ।*
*कीर्तिमृग्यं यशस्यञ्च छन्दसां ज्ञानमुच्यते ॥ इति*
हमारी हिन्दी फिल्मों के अत्यंत कर्णप्रिय व मधुर गीत बरबस ही हम सबका मन मोह लेते हैं, एक प्रश्न उठता है कि वस्तुतः उनके कर्णप्रिय होने का राज क्या है? इसका सटीक उत्तर है कि वे किसी न किसी छंद पर आधारित होते ही हैं | यह भी आवश्यक नहीं है कि वे सिर्फ एक ही छंद विशेष में ढले हों अपितु उनके स्थायी व अंतरा में अलग-अलग छंदों का प्रयोग भी देखने को मिलता है | गीतों की यही छंदबद्धता उनमें आकर्षण उत्पन्न करते हुए उन्हें गेय बनाती है | अधिकतर यह पाया गया है कि पुराने फ़िल्मी गीतों का प्रारंभ अधिकतर एक दोहे से हुए करता था जो कि हमारे मन को आह्लादित कर दिया करता था | यथा चंद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा गीत में उसका आरम्भ ‘सब तिथियन का चन्द्रमा जो देखा चाहो आज | धीरे धीरे घूँघटा सरकाओ सरताज|| वाले दोहे से ही हुआ है |
अब विधाता या शुद्धगा छंद आधारित फ़िल्मी गीतों पर एक दृष्टि डालते हैं....
*विधाता छंद' की परिभाषा:*
(यगण +गुरु) x४
यमातागा यमातागा यमातागा यमातागा
यमातागा यमातागा यमातागा यमातागा
यमाता दीर्घ चारों हों विधाता छंद हो जाये
जहां चारों मिलें साथी वहाँ आनंद हो जाये||
: विधाता या शुद्धगा छंद का सूत्र है यगण+गुरुx४ अर्थात ‘यमाता गा यमाता गा यमाता गा यमाता गा’ (यहाँ पर ‘गा’ का तात्पर्य गुरु से ही है) या १२२२ १२२२ १२२२ १२२२. उर्दू में इसे बहर-ए-हज़ज़ मुसम्मन सालिम भी कहते हैं जिसके अरकान होते हैं ...मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन. इस छंद पर आधारित फ़िल्मी गीतों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं.
(१) बहारों फू/ल बरसाओ/ मेरा महबू/ब आया है |
(१२२२/ १२२२/ १२२२/ १२२२)
(२) किसी पत्थर/ की मूरत से/ मुहब्बत का/ इरादा है |
(३) भरी दुनियां/ में आके दिल/ को समझाने/ कहाँ जाएँ|
(४) चलो इक बा/र फिर से अज/नबी बन जा/एँ हम दोनों |
(५) ये मेरा प्रे/म पत्र पढ़ कर/ , कि तुम नारा/ज ना होना|
(६) कभी पलकों/ में आंसू हैं/ कभी लब पे/ शिकायत है |
(७) ख़ुदा भी आ/समां से जब/ ज़मीं पर दे/खता होगा |
(८) ज़रा नज़रों/ से कह दो जी/ निशाना चू/क ना जाए |
(९) मुहब्बत ही/ न समझे वो/ जो जालिम प्या/र क्या जाने |
(१०) हजारों ख्वा/हिशें इतनी/ कि हर ख्वाहिश/ पे दम निकले |
(११) बहुत पहले/ से उन क़दमों/ की आहट जा/न लेते हैं |
(१२) मुझे तेरी/ मुहब्बत का/ सहारा मिल/ गया होता |
(१३) सुहानी चां/दनी रातें/ हमें सोने/ नहीं देतीं |
(१४) कभी तन्हा/ईयों में भी/ हमारी या/द आएगी |
यह तो हुई विधाता या शुद्धगा छंद आधारित गीतों की बात.... अब एक दृष्टि छंद ‘गीतिका’ आधारित फ़िल्मी गीतों पर डालते हैं. इसके लिए पहले यह जानना होगा कि गीतिका आखिर है क्या? पिन्गलशास्त्र के अनुसार गीतिका एक छंद है जिसका विधान निम्नलिखित है...
गीतिका में ही छंद गीतिका की परिभाषा:
(गीतिका : चार चरण, १४ पर यति देते हुए प्रत्येक में १४-१२ के क्रम से २६ मात्रा तथा तीसरी ,१०वीं ,१७वी,२४वी मात्रा अनिवार्यतः लघु, कम से कम प्रथम दो व अंतिम दो चरण समतुकांत अंत में गुरु-लघु/रगण, कर्णमधुर.)
चार चरणी छंद मात्रिक, अंत लघु-गुरु 'गीतिका'.
योग है छब्बीस मात्रा, प्रति चरण, सुर प्रीति का.
तीन दस सत्रह व चौबिस, चाहिए लघु मात्रिका..
शेष बारह चौदवीं यति, तुक मनोहर वीथिका.
गीतिका का शिल्प सूत्र: ‘गीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका’ है व इसका गणसूत्र: ‘राजभा गा राजभा गा राजभा गा राजभा’ अर्थात २१२२ २१२२ २१२१ २१२ होता है| यहाँ पर भी ‘गा’ का तात्पर्य गुरु से ही है | का उर्दू विधान में इसे बहर-ए-रमल मुसम्मन महजूफ़ भी कहते हैं| जिसके अरकान फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन होते हैं
इस छंद पर आधारित फ़िल्मी गीतों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं ....
(१) दिल ही दिल में/ ले लिया दिल/ मेहरबानी/ आपकी
२१२२/ २१२२/ २१२१/ २१२
(२) ‘आपकी नज/रों ने समझा/ प्यार के का/ बिल मुझे’ (स्थायी) उपरोक्त गीत के अंतरे में निम्नलिखित प्रकार से शिल्प आंशिक रूप से परिवर्तित हो रहा है।
जी हमें मं/ जूर था/ आपका ये/ फैसला (राजभागा राजभागा राजभागा राजभा)
कह रही है/ हर नजर/ बंदापरवर/ शुक्रिया (राजभागा राजभागा राजभागा राजभा)
तद्पश्चात उपरोक्त गीत पुनः मूल शिल्प में आ जाता है
हँस के अपनी/ ज़िन्दगी में/ कर लिया शा/मिल मुझे
(३)दिल के टुकड़े/ टुकड़े करके/ मुस्कुरा के/ चल दिए
(४) चुपके चुपके/ रात दिन आँ/सू बहाना/ याद है
(५)हुस्नवालों/ को खबर क्या/ बेखुदी क्या/ चीज है
(६)यारी है ई/मान मेरा/ यार मेरी/ ज़िंदगी
(७)मंज़िलें अप/नी जगह हैं/ रास्ते अप/नी जगह
(८)सरफरोशी/ की तमन्ना/ अब हमारे/ दिल में है
(९)ऐ गम-ए-दिल/ क्या करूँ ऐ/ वहशत-ए-दिल/ क्या करूँ |
आजकल हमारे कुछ विद्वान् हिन्दी ‘ग़ज़ल’ को ‘गीतिका’ भी कह देते हैं जबकि मेरे विचार में इसमें कहे गए मतले और मकते को छोड़कर हिन्दी ‘ग़ज़ल’ विभिन्न छंदों पर आधारित एक ऐसी विधा है जिसमें कहे गए अधिकांशतः शेरों के में प्रति शेर एक मुक्त पंक्ति का प्रयोग होता ही होता है संभवतः इसी लिए आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने ‘हिन्दी ग़ज़ल’ को ‘मुक्तिका’ नाम दिया है यद्यपि उनके इस कथन में हमारी पूर्ण सहमति है तथापि आज गीतिका विधा सर्वमान्य हो गयी है |
अब आते हैं भुजंगप्रयात छंद पर तो इस छंद पर आधारित निम्नलिखित गीत की छटा ही निराली है इसका गणसूत्र ‘यमाता यमाता यमाता यमाता’ १२२ १२२ १२२ १२२ व उर्दू में अरकान ‘फईलुन फईलुन फईलुन फईलुन’ है इसका गण विन्यास निम्न प्रकार से है |
तेरे प्या/र का आ/सरा चा/हता हूँ
१२२/ १२२/ १२२/ १२२
वफ़ा कर/ रहा हूँ/ वफ़ा चा/हता हूँ
दुपट्टे/ के कोने/ को मुँह में/ दबा के
ज़रा दे/ख लो इस/ तरफ मुस/कुराके
हमें लू/ट लो मे/रे नजदी/क आ के
के मैं आ/ ग से खे/ लना चा/हता हूँ
वफ़ा कर/ रहा हूँ/ वफ़ा चा/हता हूँ
अत्यंत लोक प्रचलित छंद मत्त सवैया या राधेश्यामी छंद जिस पर पंडित राधेश्याम ने राधेश्याम रामायण रची है की बात ही निराली है| अपने बचपन में हम, गाँवों में बच्चे-बच्चे को राधेश्यामी रामायण गाते हुए देखा करते थे |
हमारे द्वारा रची गयी 'मत्त सवैया' में ही 'मत्त सवैया' की परिभाषा निम्न प्रकार से है.....
*कुल चार चरण गुरु अंतहि है, सब महिमा प्रभु की है गाई.*
*प्रति चरण जहाँ बत्तिस मात्रा, यति सोलह-सोलह पर भाई.*
*उपछंद समान सवैया का, पदपादाकुलक चरण जोड़े.*
*कर नमन सदा परमेश्वर को, क्षण भंगुर जीवन दिन थोड़े..*
प्रायः ऐसा देखा गया है कि चार चरण से युक्त 'मत्त सवैया' छंद में प्रत्येक पंक्ति में ३२ मात्राएँ होती हैं जहाँ पर १६, १६ मात्राओं पर यति व् अंत गुरु से होता है | जब से पंडित राधेश्याम ने इस लोकछंद पर आधारित राधेश्याम रामायण रची थी तब से इसे 'राधेश्यामी छंद' भी कहा जाने लगा है!
इस पर आधारित गीत है ‘आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुज़रने वाली है.’ (मात्राएँ १६,१६) |
उपरोक्त के ‘जाओ’ शब्द में ‘ओ’ का उच्चारण लघुवत है |
अब आते हैं ‘वाचिक द्विभक्ति’ छंद पर जिसका गणसूत्र है
ताराज यमातागा ताराज यमातागा
२२१ १२२२ २२१ १२२२
मफ़ईलु मफाईलुन मफ़ईलु मफाईलुन
इसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार से हैं |
(१) सौ बार/ जनम लेंगे/ सौ बार/ फ़ना होंगे |
(२) हंगामा/ है क्यों बरपा/, थोड़ी सी/ जो पी ली है |
(३) हम तुमसे/ जुदा होके/ मर जायें/गे रो रो के |
(४) जब दीप/ जले आना/ जब शाम/ ढले जाना |
(५) साहिल से/ खुदा हाफ़िज़/ जब तुमने/ कहा होगा |
(६) इक प्यार/ का नगमा है/, मौजों की/ रवानी है |
(७) हम आप/की आँखों में/ इस दिल को/ बसा दे तो |
(८) ‘बचपन की/ मुहब्बत को/ दिल से न/ जुदा करना,
जब याद/ मेरी आए/ मिलने की/ दुआ करना. (स्थायी)
अंतरा:
घर मेरी/ उम्मीदों का/ अपना कि/ ये जाते हो
दुनिया ही/ मुहब्बत की/ लूटे लि/ए जाते हो
जो गम दि/ए जाते हो/ उस गम की/ दवा करना
यहाँ पर सबसे विशेष बात यह है कि चूँकि फ़िल्मी गीतों की धुन सहज ही कंठस्थ हो जाती है अतः इन धुनों को सहारा लेकर इन धुनों में ही छंद रचना अत्यंत सहज हो जाता है| इसके बाद जब हम मात्राओं व गणों की गणना करते हैं तो वह तत्संबंधित छंद पर एकदम खरी ही उतरती है |
इस प्रकार से हिन्दी चित्रपटीय गीतों जिनती भी विवेचना की जायेगी अर्थात हम जितने ही गहरे उतारते जायेंगें हमें उनमें निहित छंदों से उतनी ही अधिक आनंद की अनुभूति होगी | इति |
(नोट उपरोक्त सभी गीतों में लघु-गुरु का निर्धारण उनके उच्चारण के अनुसार ही किया गया है)
लेखक:
-- इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
९१, आगा कालोनी सिविल लाइन्स सीतापुर, उत्तर प्रदेश,
मोबाइल, ९४१५०४७०२०
*साहित्यकार का परिचय:
_________________________
*नाम: इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
*पिता का नाम: स्व० श्री राम कुमार श्रीवास्तव
*माता का नाम: श्रीमती मिथलेश श्रीवास्तव
*पता: ९१, आगा कालोनी सिविल लाइंस सीतापुर
*ईमेल: ambarishji@gmail.com
*व्यवसाय: आर्कीटेक्चरल इंजीनियर
*शिक्षा: स्नातक, भूकंपरोधी डिजाइन इंजीनियरिंग कोर्सेज (आई० आई० टी० कानपुर)
*व्यावसायिक सदस्यता: भारतीय भवन कांग्रेस, भारतीय सड़क कांग्रेस, भारतीय पुल अभियंता संस्थान, भारतीय गुणवत्ता वृत्त फोरम, भारतीय तकनीकी शिक्षा संघ, अमेरिकन सोसायटी ऑफ़ सिविल इंजीनियर्स, आर्कीटेक्चरल इंजीनियरिग संस्थान (अमेरिका) आदि.
*संपर्क: मोबाइल : ९४१५०४७०२०, ८८५३२७३०६६, ८२९९१३२२३७, दूरभाष: ०५८६२-२४४४४०
http://www.worldlibrary.in/articles/eng/Ambarish_Srivastava
*काव्य संग्रह :
(१) ‘जो सरहद पे जाए’
(२) ‘राष्ट्र को प्रणाम है’
*प्राप्त सम्मान व अवार्ड:
(१) इंदिरा गांधी प्रियदर्शिनी अवार्ड २००७
(२) सरस्वती रत्न सम्मान
(३) अभियंत्रण श्री सम्मान
* शौक: बाँसुरी वादन व कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ.
सादर धन्यवाद।
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