*"अलि"* (दोहे)
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¶नेह लुटाता पुष्प पर, प्रेमिल-पहल-पुकार।
पीकर मधु-मकरंद को, करता अलि गुंजार।।
¶मँडराता है-हर कली, अलि-मन-मत्त-मतंग।
गीत मिलन-गाता चला, मधुकर मस्त मलंग।।
¶भिक्षु अकिंचन अलि बना, मन-मधुराग-पराग।
तृप्ति कहाँ पर प्रीति की? लहके लोलुप-लाग।।
¶सीख-मिटे हर भेद-मन, वाहित-वासित-वात।
संस्मृति अलि मधु-मुरलिका, परसन-पुण्य-प्रभात।।
¶सरसाया अलि-मन मगन, प्रेम-पुष्परस-पान।
आह्लादित है स्पर्श से, पाकर अलि अवदान।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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