अखण्ड प्रकाश
कानपुर
पत्तों को नोचते तो बहुत दिन गुज़र गये।
जड़ ही उखाड़ दो तो जवां बात कुछ बने।
ये आंख आज खून में पानी है देखती।
तुम लो कसम जवानी की तो बात कुछ बने।।
वो इंकलाबी नारे जोश वतन परस्ती।
काफी दिनों से ये कोई किस्से नहीं सुने।।
कुरवान हुए एक जमाने में सूरमा। अब तुम मरो तो एक कहानी नयी बने।।
तालाब था कुछ कमल थे अब काई है लगी।
बदला नहीं गया यहां पानी जरा सुने।।
साथी तुम्हारी आज जरूरत है देश को।
आया समय कि आंख तुम्हारी ज़रा तने।।
गांधी की अहिंसा हो या आजाद की हिंसा।
सत्याग्रह करो या दुनाली यहां तने।।
बदलाव की बयार में आंधी सी चले अब।
ताण्डव करें नटराज भवानी ज़रा नचें।।
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