एक श्रृंगारिक घनाक्षरी छंद
अलसाई शाम हुई, भरे हुए जाम हुई,
डगमग पगो से वो ,गोरी बलखाती है।
अधरो को खोल कर, मीठे बोल बोल कर,
जब देखो तब चुप, चुप इठलाती है।
निज तिरछी नजर, और बाली उमर से,
आते जाते राहो पर, नैन झलकाती है,
केश लट को गिरा के, निज नजर चुरा के,
और मृदु मुसका के, सबसे शर्माती है।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
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