पेश ए ख़िदमत हैं इक नई ग़ज़ल
ये मोहब्बत इतनी भी आसान नही थी।
इसकी हमकों भी पूरी पहचान नही थी।
अब तो मानूँगा सारी ग़लती मेरी हैं।
वैसे वो भी तो इतनी नादान नही थी।
ठीक ज़रा भी होता ये दर्द ए दिल जिससे।
उस नुस्ख़े की भी कोई दूकान नही थी।
वो महलों की जीनत हैं उन्हें क्या मालुम।
ये इज्ज़त कोई बिकता सामान नही थी।
खूब खिला रहता था हर रुख का नूर यहाँ।
पहले ये बस्ती इतनी सुनसान नही थी।
मुफ़लिस हूँ पर इक दिन सब दुरुस्त कर दूँगा।
झोपड़ियाँ कोई मुक़र्रर मकान नही थी।
हर रोज़ 'अभय' शिद्दत से सम्हाला इसको।
ये जिंदगी कोई उनकी एहसान नही थी।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
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