एक लावणी छंद
सादर समीक्षार्थ
बड़ा मनमीत, वह हिय पुनीत,
देखत ही सुख, करते हैं।
प्रीत की रीत, सदा निबाहति,
हिय पीर तुरत, हरते हैं।
मन मंदिर में, रहते हमरे,
कर शीश सदा, धरते हैं।
'अभय' उस रूप, के बोलन से,
नित खिले सुमन, झरते हैं।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
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