जीत की चाह में वो हद से गुज़र गए
लाशों के ढेर पर ढेर लगाते चले गए
शत्रुता की हर हद पार करते चले गए
साम-दाम-दण्ड-भेद हर पैतरे अपनाते चले गए
हम तो शांति के लिए क़ानून
बनवाते चले गए
वो क़ानून के परखच्चे उड़ाते चले गए
जो शांतिदूत बनते हैं सफ़ेद पोशाक पहन कर
वाणी से वही आग भड़काने चले गए
अपनेपन से गले लगाते हैं महफ़िल में
एकांत में मगर पीठ में खंज़र घुपाते चले गए।
डा.नीलम
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