डा० कुमुद श्रीवास्तव वर्मा कुमुदिनी लखनऊ

एक पुजारन'''''


मैनें अपने मन-मंदिर में
तुमको ही नित् देखा है..
अपनी मर्यादा के अन्दर,तुमको 
उस मंदिर का देवता देखा है...


...............भावो के फूल चढ़ाती हूँ...
...............खुद श्रद्धा पे इतराती हूँ..
...............तेरी दासी बनकर मैं...
................तेरे ही गीत बस गाती  हूँ.


तू मुझमें अब, मैं तुझमें
दोनों की एक ही काया है
राधा -कृष्ण में,या कृष्ण राधे में..
ये भेद तो बस भरमाया है..


...................सो जाते हो मूंद पलक जब..
...................मैं चुपके से चली आती हूँ..
..................मीठे सपने से तुम लगते ..
..................मैं जब-जब ऑख लगाती हूँ..


....मैं ,तुम दोनोम 'हम 'हो गये
...सपनें अब सब एक हुए..
...दोनों एक दूजे में समर्पित 
. दोनों ही अब सत्य में अंकित 


डा० कुमुद श्रीवास्तव वर्मा कुमुदिनी लखनऊ


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