डॉ. प्रभा जैन "श्री " देहरादून

घरौंदा 
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ज़ीवन हैं एक धरौंदा 
हर पल चलती-ठहरती जिंदगी, 
इसमें साँस भरती मैं, नारी। 


कुछ रिश्तों को मन से 
कुछ को दिल से,  
कुछ को मीठी मुस्कान
किसी को सहलाकर, 
किसी को गले लगाकर 
हर साँस में,इक आस भरती 
पल-पल बनाती मैं,  घरौंदा। 


धरती की तरह सृजन करती 
हरियाली चहुँ ओर रखती, 
सीखा, जो मैंने अपने बड़ों से 
विरासत में नई पीढ़ी को देती। 


हूँ   मैं    केंद्र   में 
लौट  घरौंदे  में जो आते, 
मेरे होठों की, मुस्कराहट 
मन में शान्ति, प्रेम, उत्साह 
भर, सब  में   हैं  जाते। 


ले,  ऊर्जा वो काम करते 
पक्षी-दाना  पानी  रखते, 
बगीचें   में,  पौध लगाते 
और बनाते प्यारा सा घरौंदा 
उस चीं -चीं,चिड़ियाँ के लिए। 


हैं सर्दी  का मौसम 
पंखों में अपने को छिपाए, 
आँखें मींचे, 
करती अपने  बच्चों की चिंता। 


बैठ घरोंदें में ख़ुश रहती 
सारे दिन चीं -चीं,चूं-चूं करती, 
देख उसे ख़ुश, 
तितली, भँवरा आते, 
कली देख उन्हें 
ख़ुश हो फूल बन जाती। 
ख़ुश हो फूल बन जाती।


हैं  मेरा प्यारा सा घरौंदा 
हैं मेरा  प्यारा सा घरौंदा। 
  
स्वरचित 
डॉ. प्रभा जैन "श्री "
देहरादून


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