डॉ. प्रभा जैन "श्री " देहरादून

रफ़्तार /चाल 
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था बचपन प्यारा 
चार दीवारें खड़ी, 
पड़ी मजबूत छत। 


बड़े हुए, हुए  कुछ दूर 
असलियत नज़र आने लगी, 
पहचान  ना पाई उनको मैं। 


तासिरे  दिल  की बदलने लगी 
रफ़्तार जिंदगी की, 
यूँ गति पकड़ने लगी।


नाव में होता एक छोटा छेद 
नाव डूबा  देता, 
वह छेद ही महत्व पा गया। 


कर रहा हैं वह सब ठीक 
दर  -बदर सुनाई देता रहा, 
क्यों राहें बदल गयीं 
रफ़्तार जिंदगी की, 
थम गई। 


देख मुँह पर मुस्कराते हैं 
पीछे कौन किसके पीछे 
जान ना सकी, पता ना चला 
चली  कौन सी चाल, 
रुक गई जिंदगी, 
ज़ीवन की आस। 


स्वरचित 
डॉ. प्रभा जैन "श्री "
देहरादून


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