डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

दिनांक: २७.०२.२०२०
दिन: गुरुवार
शीर्षक: उठी घृणा की धूम
विधा: दोहा
छन्द: मात्रिक
आसमान  काला  हुआ , उठी  घृणा  की  धूम। 
उड़े मौत भी गिद्ध बन , देख अमन  महरूम।।१।।
कट्टर   है   नेतागिरी , भड़काते    जन  आम।
जला रहे, खुद भी जले, बस भारत  बदनाम।।२।।
क्या  जाने   वे   दहशती , क्या  माने  है धर्म।
परहित प्रीत सुमीत क्या , दया कर्म या  मर्म।।३।।
शान्ति नेह समरस मधुर, क्या  जाने  शैतान।
सौदागर जो मौत   के , खुद जलते ले  जान।।४।।
अफवाहें भड़काव के , फैलाते  जन  भ्रान्ति।
मार काट दंगा वतन ,  मिटा  रहे   वे  शान्ति।।५।।
देर  हुई सरकार की , कत्ल  हुआ जन आम।
निर्दोषी   लूटे    गये , मौत    खेल  अविराम।।६।।
आज    बने    जयचंद बहु ,आस्तीन का सर्प। 
वैर    भाव   हिंसा घृणा , सदा मत्त डस  दर्प।।७।।
महाज्वाल प्रतिशोध की, जले पचासों  जान।
लुटी खुशी उजड़े चमन , बन मातम   हैवान।।८।।
रहो सजग हर पल सबल, अनहोनी आगाज़। 
निर्भय नित जीवन्त पथ ,कर आपदा इलाज़।।९।।
कवि निकुंज करता विनत,जागो जन सरकार।
बांटो  मत  भारत  वतन , करो  नाश     गद्दार।।१०।।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


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