*यादों का मरकज़*
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आज भी याद है वो
पुश्तैनी गाँव का वो मकां
जहाँ मेरी खुशियों के मरकज़ की खुशबू आज भी मौजूं हैं
वो छायालोक का
गुंजलक, है मेरे रुहानी आशियां को,अपने पाश में लपेटे बड़े प्यार से,
खोल रखा है बस
झरोखा एक यादों का,
जहाँ हर रोज़ रात के
सन्नाटों में,
दिल की चादर ओढ़
रुह मेरी घूम आती है,
और छूकर उन
दीवारों को
यादों से लिपट जिंदगी पा आती है
हारने नहीं देती
फिर मुझे
जीवन की किसी भी
लड़ाई में,
हर वक्त सुरक्षित
महसूस करती हूँ
अपने आप को,
मानों मेरे बुजर्गों की
रुहानी चादर ने
अपने आशीष के
आगोश में ले
संवारी हो मेरी रुह।
डा.नीलम
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