हलधर जसवीर

कविता - झरोखा 
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लिख रहा आज मैं कविता ,सपने की एक कहानी ।
भारत माता रो रो कर ,आंखों भर  लायी पानी ।।


भारत माता ने पूछा ,खोया है वैभव सारा ।
गलियों में है चिंगारी,सड़कों पर है अंगारा ।।


मैं बोला मैया तेरा , वैभव अवश्य आएगा ।
मतलब कुनबे का जग को ,भारत ही समझाएगा ।।


मैया मेरा क्या मैं तो ,निज देश चला जाऊंगा ।
जिंदा छंदों के द्वारा ,मैं देश राग गाऊंगा ।।


कविताएं मेरी तब भी ,जग का आव्हान करेंगी ।
गंगा की उठती लहरें ,धरती में रंग भरेंगी ।।


मैं स्वयं चिता में जलकर ,नव ज्योति जला जाऊंगा ।
सपनो की इस धरती पर ,जाने फिर कब आऊंगा ।।


आयेंगे अलि कुंजन से ,छंदों पर मंडराने को ।
पर मैं न रहूंगा जग में ,मां तेरे गुण गाने को ।।


तब कुशल क्षेम को मेरी ,नभ से राही आयेंगे ।
कविता मेरी मंचों पर ,सजधज कर वो गाएंगे ।।


कविता जो भी गाएगा ,छंदों का रूप बदल कर ।
सपने में आ जाएंगे ,उसको समझाने दिनकर।।


मैंने भी तो गाया है ,बीते युग के गायन को ।
मुगलों के राजतिलक को ,अंग्रेजी वातायन को ।।


गौतम के कर्म देखकर ,मैं मन ही मन अकुलाता ।
तब सत्य अहिंसा मग में ,डूबी थी भारत माता ।।


घावों पर नमक लगाने ,फिर एक पुजारी आया ।
बापू कहकर जनता ने ,उसको भी गले लगाया ।।


बटबारे में मां तुझको ,कुछ ऐसे घाव मिले थे।
लाशों से धरा पटी थी ,पत्थर रो रो पिघले थे ।।


सब छोड़ पुरानी बातें ,हमने यह देश संवारा ।
चोरी से घर घुस बैठा ,अलगाव वाद का नारा ।।


देखा दिल्ली में जाकर ,यमुना कैसे रोती है ।
यम की बहना कलयुग में ,कैसे मैला ढोती है ।।


गंगा की करुण कहानी ,कैसे जग को बतलाऊं ।
प्रदुषित गंगा जल को ,देवों को पिला न पाऊं ।।


आतंकवाद ने घेरा ,धरती का वैभव सारा ।
इस्लाम खोज नहिं पाया ,इन दुष्टों से छुटकारा ।।


रोता घायल मन मेरा ,कैसे अब धीर बधाऊं ।
शमशान बनी है धरती ,कैसे यह स्वर्ग बनाऊं ।।


धरती का रूप देखकर ,रोते है नभ के तारे ।
विस्फोट रोज होते है ,उठते खूनी फब्बारे ।।


मंदिर मस्जिद से उठती ,कौमी मजहब दीवारें ।
यह देख देवता रोते ,रोती सुनसान मजारें ।।


रोजाना नारे लगते ,मजहब के नाम सदन में ।
सुनकर के क्रोध जागता ,लगती है आग बदन में ।।


छोटी बातों को लेकर ,तूफान खड़ा हो जाता ।
सड़कों पर जलती गाड़ी ,ऐलान बड़ा हो जाता ।।


सपने में दिनकर बोले ,छोड़ो यह राग पुराना ।
मैंने भी समझाया था , मजहब है पागलखाना ।।


जीवन का मकसद भाई ,कुछ कर के ही जाना है ।
दो घर है इसके जग में,कुछ खोना या पाना है ।।


मदिरा छंदों की ज्यादा ,छोटा सा घट का प्याला ।
इसमें क्या आ पाएगी ,यह व्योम गंग की हाला ।।


इतिहास पूछता मुझसे ,अब मेरी क्या है गलती  ।
वो वर्तमान की ज्वाला ,मेरे घर में आ जलती  ।।


धरती पर आकर मैंने ,जीवन का सच यह देखा ।
राजे महराजों से भी , नहिं मिटा भाग्य का लेखा ।।


हर मानस का धरती पर ,जीवन होना नश्वर है ।
जो काम भले कर जाए ,उसका ही नाम अमर है ।।


दिनकर बोले अब "हलधर" ,मेरे पीछे मत भागो ।
अपनी कविता में गाओ , जागो रे भारत जागो ।।


हलधर - 9897346173


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