महेश राजा महासुमन्द छग

मेरा जन्मदिन 
आज जन्मदिन था।अच्छा गुजरा दिन। सभी परिवार जन,आत्मीय जनों की शुभकामनाएं प्राप्त होती रही।
एक मित्र ने कहा,-"क्या जन्मदिन मनाना,जीवन का एक बरस कम हो गया।एक दार्शनिक महोदय भी लिख गये है।


मैं थोडा अलग सोचता हूँ।कि जीवन में अनुभवों के एक बरस का ईजाफा हुआ।


जीवन के बांसठ बसंँत देख लिये।अब तो सब कुछ बोनस जैसा ही है।


सेवानिवृत हुए दो बरस हो गये।दो तीन माह बैचेनी मे कटे,पर अब एक आत्मिक सुकून महसूस होता है।
 पहले जीने के लिये समय कम पडता था।अब समय ही समय है।अपने आपसे मिल पाने का सुख।अध्यात्म से जुड पाने का सुख।और सबसे अच्छी बात लिखने के लिये समय ही समय।बिंदास लिख रहा हूँ।लोगो को पसंद भी आ रहा है।


    जिम्मेदारी या सारी पूर्ण है।बच्चें सुख से है।कभी बैंगलोर कभी गुजरात।
आज दिन भर हनुमानजी  के सानिध्य मे बीता।सबके लिये सुख ही मांगा।
हां,देश मे एक बडी घटना हो रही है,मन विचलित है।पर जो होनी है,अवश्यंभावी है।उसे कोई नहीं रोक सकता।
    पीछे मूड़कर देखता हूँ तो लगता है,बहुत कुछ पीछे छूट गया।बहुत कुछ खो गया।फिर मन कहता है,जो पास है,साथ है उसे समेट संभाल कर रहो।


   बच्चों ने बहुत कोशिश की खुश रखने की।ढ़ेर सारे गिफ्ट, केक आदि भेजे।पर,सब साथ न थे तो अकेलापन महसूस हुआ।
    
 कुश से फोन पर बात हुई अच्छा लगा।पूछा,बड़े होकर क्या गिफ्ट दोगे तो वह मासूमियत से बोला,"दादा कार।फिर तुरन्त बोला,अरे दादा,आप कार कहाँ चला पाओगे ,मैं ही चला कर मंदिर ले चलूंगा।


सब कुछ अच्छा ही लग रहा है।जीवन की दिशा तो स्वयं ही चुननी है।क्या खोया,क्या पाया वाले भाव उठते रहते है।पर मेरा पोता  हमेंशा कहता है ,-"सब बढिया है...सचमुच सब बढिया ही तो है।


हांँ बीते दिनों को आदरणीय हरिवंशराय बच्चन के शब्दो मे कुछ यूं प्रस्तुत कर अपनी वाणी को विराम देता हूंँ।


सोचा करता बैठ अकेले
गत जीवन के सुख-दुःख झेले
दंँशनकारी सुधियों से मै उर के छाले सहलाता हूँ।


ऐसे मे मन बहलाता हूँ।
नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम।
उर के घावों को आंसू के छालों से नहलाता हूं।
ऐसे मैं मन बहलाता हूं*।
महेश राजा महासुमन्द छग


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