नयी दिल्ली

 स्वैच्छिक (संस्मरण)
शीर्षकः 😢कराहता संस्मरण जीवन के🤔
भाग- १
एक दुःखद क्षण, घनघोर कालिमा चारोंतरफ, साँय साँय करती मौत की दहशत खड़ी थी सामने, सब कुछ समझ से पड़े, जोर जोर से कड़ाक कड़ाक की भयानक आवाज , जैसे धरती व आसमां  विनाशी भूकम्पन से काँप रहा हो ,समझ से पड़े । सुबह सात बजे का समय था , धीमी धीमी बरसात हो रही थी ,सभी यात्री ,बच्चे, बूढ़े,जवां सब आराम से अपने अपने बेडों पर सोये हुए थे निरापद निस्पन्द। दिल्ली से डिब्रुगढ़ आसाम जानेवाली राजधानी एक्सप्रेस अस्सी की स्पीड में धक धक छुकछुक करती हुई रेल निर्बाध बढ़ रही थी अपने गम्य नियत स्थान की ओर। २५ मई सन् २०१० की २.१५ बजे रात जब हमने सपरिवार गुवाहाटी जाने के लिए पटना रेलवे स्टेशन से राजधानी पकड़ी थी। देर रात रेल की प्रतीक्षा करने के कारण थके बच्चे बेसूध पड़े सो गये थे अपने अपने बर्थ पर। हम दम्पती भी निद्रा के सुकून में मशगूल थे। 
पर अचानक धमाके की आवाज दिल और दिमाग को चीखती हुई खटाक खटाक की भयानक आवाज ने घबरायी आँखें खोल दी। पल भर में बातें समझ में आ गई , सामने मौत दहशत देती खड़ी थी। राजधानी ट्रेन पटरियाँ छोड़ रही थी, अर्थात् दुर्घटना ग्रस्त हो गई थी। अचानक घबराये लोगों की सामने में जिह्वा लपलपाती  मौत को देख कारुणिक  चीख कोलाहल से वातावरण गुंजने लगा था। रोती हुई चिल्लाती मेरी धर्मपत्नी मेरी बेटे का हाथ पकड़ उसे उठा रही थी अपनी ज़ान की परवाह किए बगैर और मैं बेटी को ,यह जानते हुए भी कि सभी विकराल मौत के गाल में बस समा ही रहे हैं , जी लें साथ दहशती कुछ क्षण साथ मिल परिवार संग चिपके सब आपस में देखते आकुलित स्नेहिल आँखों से। ऊफ , अविस्मरणीय मौत का ताण्डव पलभर में सबकुछ खत्म , सारी अभिलाषाएँ धुलधुरसित मिट्टीपलित जिंदगी का दारुण भयावह अवसान।
परन्तु अचानक थम गई आवाज़ ,जम गए पहिए पत्थरों के आगोस में , रुक गई राजधानी सहसा, साँस में साँस आयीं मौत के गाल में समाये यात्रियों के। होड़ लगी उतरने की, शुरु हुई धक्कामुक्की , सबको अपनी ज़ान बचाने की फ़िकर थी , किन्हें चिन्ता थी उससमय अपने कीमती सामानों की, बच्चों की ,सब ट्रेन से कूदने में लगे थे ,जैसे अभी भी ट्रेन चल रही हो। कूदो कूदो ,उतरो जल्दी उतरो ,कोई कहता था, भाई,संभल के, कुछ अपने लाडलों को खींचते चीखते ,भगवान् खुदा ,वाहे गुरु ,गॉड का खुद को बचाने का गुहार लगाते। किनको थी उससमय किसकी फ़िकर ? क्यों न हो ,सबको तो इस वक्त अपने ज़ान के लाले पड़े थे, मौत जो ज़हरीले फन ताने खड़ी थी डँसने को उस वक्त। 
हम पति पत्नी भी हवा की झोंकों के समान बच्चों के हाथ पकड़ उतरने को ट्रेन से जैसे तैसे भी फाँदने को बेताब थे।
उतरे नीचे , बच्चे भयभीत थे इसकदर ,जो चिपके थे काँपते विलखते हमसे ,क्या हो गया ,हम क्यों उतर गये ट्रेन से , बिना रुके प्रश्न पर प्रश्न करते जा रहे थे। जांबाज था वह चालक ट्रेन का पटरियों से उतरी ट्रेन को अचानक बेंक ले बन साहसी रोक दी थी । बचा ली थी ज़ान तीन हजार मासूम यात्रियों को मौत के शैतानी विकराल खूनी विशालतम दानवी कण्ठग्रास से।  


भयानक आवाज़ से गुंजायमान आस पास कोसों तक गाँव के लोगों का लगने लगी जमावड़ा। बारिस हो रही थी , भीड़ बढ़ने लगी, शोर गुल चारों तरफ ,कुछ लूटने को, कुछ बचाने को। चौदह ट्रेन के डिब्बे पटरी से अलग चिपके थे ढाल बन खड़े पत्थरों में। नक्सलियों ने बम विस्फोट कर पटरियाँ उड़ाई थीं।  भयानक गढ्ढे बन गये वहाँ जहाँ बम लगाये थे मानवता के दुश्मन नक्सली आतंकवादियों ने। आधे किलोमीटर तक बिन पटरियों को खींच ले गई थी ट्रेन। यह आश्चर्यचकित करनेवाली भयावह घटना थी। बिना पटरी की ट्रेन उतनी दूरी तक आगे कैसे खींची चली गई ? पीछे की चार बॉगी जो विस्फोट के बाद पीछे छूट गये साठ प्रतिशत झुक गये थे । लोग काफी घाएल हुए थे। हमलोगों को भी चोटें आयी थीं ,खैर ज़ान बच गई थी सबकी। दुआ सब ट्रेन चालक को दे रहे थे । आज वही सबके सामने भगवान् नारायण, खुदा बनकर खड़ा था। 
घंटे भर में पूरी पूलिस महकमा आला अधिकारी सब घटनास्थल पर मौजूद थे। 
हताश दौड़े भागे आ रहे थे मीडियाकर्मी गण जैसे मानवता के सबसे बड़े पैरोकार सिपहसालार हों। 
हद तो तब हो गई कि उन्हें आम जनता सहमी पीड़ित जनता की फ़िक्र नहीं थी, वरन् वे ख़ोज रहे थे पूछ रहे थे पीड़ित असहाय यात्रियों से कि कोई विधायक, एम.पी, मंत्रियों या कोई वि वि आई पी यात्रियों के बारे में ,जो हताहत तो नहीं हुआ है इस ट्रेन दुर्घटना में। लोकतंत्र की सशक्त चौथी आँख का बेदर्द संवेदनहीन नज़ारा। शर्मसार हुईं इन्सानियत , नैतिक स्तर मानवीयता इन पत्रकार वाचालों की उससमय। सोचिए , क्या गुजरी होगी अवसीदित किसी तरस प्राणवायु पाये अवसीदित यात्रियों के मन में। कोई सुनने को तैयार न था क्रन्दित अवसादित करुणगाथा। 


खरीक और कटिहार के बीच में फँसे हम सभी अनवरत वर्षा और मोबाईल नेटवर्क से शून्य और असामाजिक लूटपाट से सम्बद्ध लोगों के बीच दहशत में पड़े  लाचार हम यात्रियों की करुणात्मक मनोदशा की आप कल्पना कर सकते हैं। 
ढाई घंटे के बाद मेडिकल उपचारार्थ ट्रेन आयी कटिहार से।आवाजाही के सभी रूटें बन्द  करवा दी गईं। उद्घोषणा की 
गई  १२.३० बजे अपराह्न एक रिलीफ़ ट्रेन कटिहार से गुवाहाटी तक फँसे यात्रियों को ले जाने के लिए आएगी , सभी यात्री जो ए सी फर्स्टक्लास ,  टू.ए , या थ्री टायर ए. सी में थे वे क्रमशः द्वितीय ,तृतीय और स्लीपर क्लास के डिब्बे में स्थान लें। 
सब यात्रियों के मुख पर राहत की लकीरें छा गई। पर ये क्या ? जैसे ही ट्रेन आयी आपाधापी धक्कामुक्की शुरु। सारे नियम कायदे ताख पर रख यात्री ट्रेन में चढ़ने लगे, बिना दूसरों के ख़्याल के , सीट बर्थ को अपने कब्जे में लेने को तत्पर। लगता ही नहीं था कि कुछ घंटों पहले उनके ज़ान के लाल पड़े थे, निकल आये थे दावानल मौत के घाट से।
ख़ैर , किसी तरह चढ़ पाए हम ट्रेन में ,वाद विवाद से मिल पायी बैठने की जगह। चल पड़ी रिलीफ़ ट्रेन अपनी मंजिल की ओर। बी एस एन एल मोबाईल नेटवर्क काम करने लगा , मैंने एक पास बैठे यात्री से मिन्नतें कर घरवालों को इस घटना की सूचना देने के लिए मोबाईल माँगी। उस भद्र व्यक्ति ने मोबाईल दे कृतार्थ किया और मैं अपने सम्बन्धियों को घटना की सूचना दी। सब घबराये थे। पर बोडाफोन नेटवर्क उपलब्ध न था । फोन लगातार उस सहयात्री के मोबाईल पर आने लगे, परन्तु दाद देनी चाहिए उस सहगामी मित्र का ,जो बिना किसी झुंझलाहट के हमें अपने फोन से संभाषण कराता रहा। पौने आठ बजे ट्रेन एन. जी. पी. रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन गुज़र रही थी , बच्चे मेरी पत्नी अपनी नानी ,माँ से बातें कर रही थीं, वे आशीर्वाद दे रही थीं ,कुछ भी नहीं होगा हमारे जीते जी बच्चों को, आया ग्रह कट गया। मैंने भी बात की। वैसे वे दो दिन पहले रोक रही थीं गौहाटी जाने से , पर हमने उनकी बातें बच्चों की पढ़ाई के कारण मानी नहीं थी। 
रात सवा एक बजे ट्रेन गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पहुँची। मेरी गाड़ी ले मेरा ड्राईवर स्टेशन के बाहर हाज़िर था। हमलोग डेढ़ बजे रात अपने निवास पहुँचे। बच्चे भी थके थे,बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई ।
हम दम्पती भी उसी क्रम में थे कि फोन की घंटी टनटनायी बार बार , मैंने रिसीवर उठायी और सुनकर अवाक् मैं कुछ बोल न सका रिसीवर छूट गई हाथ से। पत्नी घबराई मेरी आँखों से बहती अजस्र अश्कों को देख। बहुत पूछने पर बस इतना निकला मुख से " माँ चली गई पौने आठ बजे रात" । पत्नी चिल्लायी - पागल हो गये हैं आप ! हमने पौने आठ बजे बातें की हैं माँ से। ये हो नहीं सकता ,झूठ बोल रहे हैं आप ! उसी वक्त फिर फोन की घंटी बजी , ख़ुद उसने उठायी रिसीवर और कारुणिक निनाद करती हुई गिर पड़ी जमीं पर। मेरी मनःस्थिति की दुर्दशा का आकलन आप कर सकते हैं। पत्नी पैदल जाने को तत्पर पटना पागल बनी और ऐसा क्यों न हो ,बड़ी बेटी थी वह माँ की , कोई भाई नहीं, माँ की सभी अरमानों का महल। 
मैंने द्वितीय तल पर रहनेवाले अपने प्राचार्य श्री राजू सर को रात में जगाया, सारी बातें बतायी ,मकान मालिक को बतायी। ड्राईवर बुलाया और चल पड़े गुवाहाटी एयरपोर्ट। कोई टिकट उपलब्ध नहीं , तत्काल में कलकत्ता तक के लिए तात्कालिक चार वि.आई.पी,टिकट चालीस हजार रुपयों में इंडिगो टिकट मिली। मेरे प्राचार्य ने 70000/- रूपये निकाल कर दी मुझे अपने बचत खातों से जो भी शेष थे उनके पास। तीन बजे पहुंचा कोलकाता एयरपोर्ट। वहाँ से चौदह हजार रुपयों में एसकार्पियो भाड़े पर ले रात ७.३० बजे कोलकाता से पटना के लिए रवाना हम हुए। रास्ते में आये भयानक आँधी तूफान के झंझाबातों से जूझते हुए हम सभी महेन्द्रू ,पटना निवास पर दिनांकः २७ मई सन् २०१० को साढ़े दश बजे सुबह पहुँचे। अनन्तर हम सबने गुबली घाट, गंगा तट,पटना में अपनी ५४वर्षीय सासू माँ का दाहसंस्कार सम्पन्न किया। 
एक साथ हमारे साथ घटी ये दुर्दान्त रोंगटें खड़ी कर देने वाली भयावह घटनाएँ आज भी हम दम्पती और बच्चों के ज़ेहन में दुःखद स्मृति पटल पर विद्यमान है। ख़ुद को मौत की काली साये में ढकेलकर मेरे पूरे परिवार को जीवन दान दे गई सासू माँ। सच में माँ अपने बच्चों को अपने जीते जी बाल भी बाकाँ नहीं नहीं देती, उस दिन हम सबने अपनी आँखों से देखा,परखा। हम सब कृतज्ञ हैं उस माँ का ,जिनकी ममता
 स्नेहाशीर्वाद से आज हम आप सबके समक्ष उपस्थित हैं। 
डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
नयी दिल्ली


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