*घरौंदा*
9/2/ 2020
मैं स्त्री
बहुत कुछ संजोती हूँ खुद में
न जाने कितनी यादों के घरौंदे
मेरे सीने में बने हैं ।
न जाने कितनों को पनहां देते हैं।
अक्सर सुना है मैंने
की बाबुल के लिए पराई बेटी
पर अनुभव नही हुआ कभी
फिर बालम के घर
दूसरे घर से आई नही सुना कभी।
हां अक़्सर लोगों से सुना कि
स्त्री तेरा कोई घरौंदा ना बना
पर मैं करती हूं विरोध
ऐसी भावनाओं का
क्यों
क्योंकि स्त्री वो सकारात्मक ऊर्जा है
जहां भी बैठी
पूरा घर उसके चारों ओर घूमता है।
और मेरा घरौंदा वहीं बन जाता है
जहां मेरा कदम पड़ता है
मैं स्त्री
जंगल में भी मंगल कर
प्राण फूँक देती हूं
उजड़े हुए दयारों में भी
स्पंदन भरती हूँ।
क्या है कोई घरौंदा मेरे बिना
जो लगे जीवंत
महकता गुनगुनाता
अपने मनोभाव जताता ।
हर घरौंदा जीवंत होता है
माँ की उपस्थिति से
हर नारी एक मातृत्व ही है
हर रिश्ता निभाती माँ ही लगती
चाहे बहन,भाभी, बेटी किसी भी रिश्ते में बंधी ।
बहार भी नही आती उस बिन
जिस घर में स्त्री नही मुस्काती
वो घर ईंट पत्थर के दीवारों का नक्शा भर है
बिन स्त्री घरौंदा नही बन पाता ।
स्त्री की उपस्थिति जहां हो जाती
बहार गुंजों में खिल जाती
हर दीवार स्नेह से महक जाती
हर वो जगह घरौंदा बन जाती ।
तो कभी न कहना नारी कि
मेरा कोई घर नही
तेरा वजूद ही तेरे अपने परायों का घरौंदा हैं
जिसमें तूने ना जाने क्या क्या सजा रखा है
स्त्री तू ख़ुद में प्रभु की बनाई वो कृति है
जो सृष्टि चलाने को बनी है
खुद में ही तू सम्पूर्ण घरौंदा है।
निशा"अतुल्य"
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