निशा"अतुल्य"

ख़्वाब जो बस जाते हैं ज़हन में 
बन कर सुन्दर मंज़र
और करने को उसे पूरा 
मैं दौड़ती दिन रात यहां से वहां।
क्या समझता है कोई मेरी ये व्यथा
भागती हूँ जिन ख़्वाबों के पीछे
क्या वो मेरे सिर्फ मेरे लिए हैं 
नहीं हर्गिज़ नहीं।
कभी माँ बाबा के लिए
कभी जीवन साथी के लिए 
और अंततः बच्चों के लिए 
और मैं खाली खड़ी रह जाती हूँ
आज उम्र के इस मोड़ पर 
सोचने को मजबूर 
क्या किया ख़ुद के लिए।
तुम समझ सकते हो इसे हार मेरी 
पर ये ही बन जाती है 
जीवन की जीत मेरी।
ये चमकती हुई चांदी बालों में
कुछ ख़्वाब पूरे होने की कहानी है
चेहरे की चंद महीन रेखाएं
शायद उन ख़्वाबों ने खींच दी
जो कहीं अधूरे हैं।
आज समय ही समय है 
मगर अपने कोई ख़्वाब नहीं
फिर भी महकती गुलाब की तरह
हर सुबह मेरी 
नित देखती नए ख़्वाब 
हर दिन रात के जो हैं
मेरे अपनो के लिए 
हर रोज भरी रहती है 
मदहोश किसी न किसी ख़्वाब से।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


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