निशा"अतुल्य"

विषय          दरख़्त
दिनाँक        7/2 /2020



सूखने लगा है घर के सामने का वो दरख़्त
जिस की डाली पर बहुत से रिश्ते बैठे हैं
मेरे बचपन की यादों के संगी साथी 
वो उसकी छाया में गुड्डे की बारात का रुकना
गुड़िया को सजा बैठना दरख़्त की लकड़ियों से सजे मंडप में।
कितना कुछ संजो रखा है इस सूखे से दरख़्त ने खुद में
मेरी यादों का हर वो मंजर जो मेरे हंसने रोने का है।
फूटेंगी कोंपले इस पर मेरी यादों की बारात के मानिंद
मेरे यक़ीन की खाद और आँसुओं का पानी 
देगा पुनर्जन्म मेरे बचपन के साथी को। 
नित निहारतीं हूँ यादों के झरोखों से उसको
वो भी खिला खिला सा आ जाता है ख़्वाबों में मेरे
और दे जाता है यकीन खुद के जिंदा होने का।
मिल जाती है मुझे भी एक वजह मुस्कुराने की
मेरी यादों का वो दरख़्त नही सूख सकता कभी 
मुझे हो चला है ये यक़ीन क्योंकि उस पर टँगी है मेरे बचपन की यादें
जो जिंदा है मुझमें अभी जो जिंदा है मुझमें अभी।


स्वरचित 
निशा"अतुल्य"


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