मुक्तक
*जयति परात्मन*
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यदि परात्मन पराशक्तिमय बिन तो , नहिं राधा कृष्णमयी होती।
तब बृजरज विभूति न बन पाती , तब न बंसुरी मधुर सरस होती।।
शाश्वत प्रेम में बसा ईश्वर में , जहाँ मनभाव आकर्षण,
भक्ति करुणा रस जहाँ सरसे नहीं वँह कीर्ति क्षति होती।।
चले आओ कन्हैया अब हमें नित बेचैनियाँ छलती।
मेरी आशा का तुम्ही संबल तुमसे श्वांस यह चलती।।
ये बृज की रेणु चंदन सम जहाँ शैशव बिताया था,
प्रखर उर ताप विरहा का अब तुम बिन ज़िंदगी खलती।।
प्रखर दीक्षित
फर्रूखाबाद(उ.प्र)
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