मुक्तिका
प्रखरोक्ति
कुछ मन की
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(1)
गिले शिकवे बहुत होंगे नहीं होगा तो वश अपना।
मुजाहिर सा फकत जीवन यहाँ दिन रात बस खटना।।
आज चर्चों का दौर बस उनका जो करें सौदे जमीरों के,
प्रखर दो जून की रोटी , उन्हें अब भी लगे सपना।।
(2)
कलियों में घुली रंगत गमकती खुश्बू ए गुलशन।
बहारों में नशा वल्लाह पाँखुरी रूप ज्यों चंदन।।
नहायी ओस में सुबहो , ओढे शीत का कोहरा, अरी ऋतुराज दर आया,चलो कर लें सखी परछन।।
(3)
सकुचायी तिय कछु लजरायी कांति अरी अरूणिम निखरी।।
भुईं पाँव धरै हौले होले , अल्हड अलकें उरझीं बिखरी। ।
नैना खंजन आंजे अंजन कटि चुंबित वेणी मादा अहि सी,
अधर रक्त बिहंसे पिय लख सत बसंत को काम विकट सखी री।।
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