प्रिया सिंह गीतिका
हसरत-ए-मक़ामात मेरा अब कुछ भी नही जाना
खयालातों पर हक मेरा अब कुछ भी नही जाना
चाहत कहां.... समन्दर को दरिया तक पहुंचने का
हिज्र का शोर है दरिया का अब कुछ भी नही जाना
पायब सी निखरी बिखरी खुद में मदमस्त सी नदी
कागजी नाँव की औकात अब कुछ भी नही जाना
चलती ठहरती इतराती लहराती ये तलब इश्क की
समन्दर में मैं... मेरी प्यास अब कुछ भी नही जाना
कई तारे चमकते समंदर पर जाने क्यो आ झलके
समन्दर को चांद की कमी अब कुछ भी नहीं जाना
हालातों में बनता और बिगड़ता छोटा सा कतरा ये
दर्द अकेले मेरे हैं के तेरा अब कुछ भी नहीं जाना
Priya singh
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