कहता है ऊलजलूल जमाना तो कह लेने दो ना
आज मनगढ़ंत बातों को उसकी सह लेने दो ना
कलंकित जब सीता है जमाने में तो..मैं क्या हूँ
दो अश्क इन आँखो से भी आज बह लेने दो ना
खामोशियां उलझ जातीं है दामन में मेरे तो क्या
शहर-ए-महफिल को भी खामोश रह लेने दो ना
आशियाना दिल का अब खंडहर होने को है तो
बचे ईंट को भी इमारत से आज ढह लेने दो ना
एक चिंगारी शोला बन तन बदन में आग लगा दे
उस आग से बनकर अगरबत्ती मुझे दह लेने दो ना
Priya singh
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें