रीतु प्रज्ञा         दरभंगा, बिहार

सितम


ये कैसी  सितम है आयी
शैतानों ने नींद है चुरायी
दुकान,घर सब है जला
लोभी भेड़िया है इधर-उधर खड़ा
दरिंदगी से धुआँ-धुआँ सा है पवन
खौफ समाया है प्रति जन के बदन
माँ खोती जा रही हैं सुनहरा कल
रहा न कोई देने वाला मीठा फल
बहने ढूंढू रही हैं रक्षाबंधन वास्ते कलाईयाँ
घड़ी-घड़ी मिल रही हैं रुसवाईयाँ
अश्रुपूरित नैना करती हैं सवाल
सितमगर क्यों देते गमों का सैलाब?
             रीतु प्रज्ञा
        दरभंगा, बिहार


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