रेनू द्विवेदी लखनऊ

"गीत"


वेदना संवेदना तुम,बंदगी परमार्थ हो तुम! 
वायु हो तुम प्राण हो तुम, प्रेम का भावार्थ हो तुम !


लिख रही हूँ मै तुम्हे ही,
मुक्त होकर बन्धनों से!
पढ़ रही हूँ मै तुम्हे ही,
लो सुनो खुद धड़कनो से!


शब्द के ब्रह्माण्ड में प्रिय, दिव्य सा शब्दार्थ हो तुम !
वायु हो तुम प्राण ------


काव्य की निज साधना में,
 प्रेम है प्रियतम तुम्हारा!
मृत्यु का अब भय नही है,
मिल गया मुझको किनारा!


प्रेम पथ पर चल पड़ी हूँ, जिंदगी के पार्थ हो तुम !
वायु हो तुम प्राण की--------


प्रेम ही है प्राण -धन औ,
धर्म  का भी सार है ये!
प्रेम जीवन में नही यदि,
तो वृथा संसार है ये!


स्वार्थमय है यह सकल जग, सिर्फ प्रिय निस्वार्थ  हो तुम !
वायु हो तुम प्राण --------


भूमि से लेकर गगन तक,
प्रेम का वातावरण है!
अब प्रणय के गीत गूंजे,
प्रेम का ही व्याकरण है!


जो पढ़े उसको विदित हो, सृष्टि का निहितार्थ हो तुम!
वायु हो तुम प्राण ------- 


    "रेनू द्विवेदी"


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