डॉ. शेषधर त्रिपाठी                    पुणे, महाराष्ट्र

खंडहर बसंत(आज की नजर में
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वीरानियों पर टसुए बहाता,
जो उजड़ा हुआ चमन है।
बुलबुलों की चहक नदारद
अब खंडहर हुआ बसंत है।
दिलजलों ने दिल जलाकर,
खाक गुलशन कर दिया।
अब रहनुमा बन कह रहे हैं,
वाह जी!मैंने क्या किया।
होश में कब आएगी इंसानियत,
जो इंसान को ही रौंदती है।
लगा दी आग आशियाने में,
जो रह रह के दिलों में कौंधती है।
कैसा गुबार था ये घिनौना,
जो तेरा जमीर सिसकता भी नहीं,
तेरे कद का जो इंसान था,
अब हैवानियत से हो गया बौना।
इंसां जो भी गुबार है तेरे दिल में,
उस पर नफरतों का मुलम्मा न चढ़ा।
रहमो अमन से अब सीख रहना,
बस इंसान बनकर इंसानियत बढ़ा।
        © डॉ. शेषधर त्रिपाठी
                   पुणे, महाराष्ट्र


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