सत्यप्रकाश पाण्डेय

अर्धांग नहीं सर्वांग हो तुम
तुमसे मिली पूर्णता मुझको
तुमसे मैं हूँ मुझसे हो तुम
है नहीं कोई रिक्तता मुझको


जो अभाव थे जीवन में
तुमको पाकर वह पूर्ण हुए
बीतेंगे सुखमय दिन मेरे
अब हम इतने सम्पूर्ण हुए


जीवन कश्ती ले निकला
भवसागर धारा में व्याकुल
तुम जैसी पतवार मिली
अब न तट के प्रति आकुल


तरे जा रहा हूँ धारा को
लेकर आँखों में सपने प्यारे
झंझावात शान्त हो रहे
लक्ष्य निर्धारित हो रहे सारे


तरल तरंगित भावों का जल
संस्कारों की उठती लहरें
मन पक्षी उड़ने को आतुर
मिलकर बाधा पार करें


सत्य जीवन की बागडोर
है प्रिया तुम्हारे हाथों में
हुई हयात स्वर्गमय अपनी
जब हाथ तुम्हारे हाथों में।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...