एक अजब सी अनुभूति,
मेरे हृदय में रहती है।
अपने अतीत के अनुभव,
मुझसे कहती रहती है।।
कुछ भी सार नहीं जग में,
क्यों भ्रमित है नर यहां?
ईश्वर ही है सत्य जगत में,
फिर भटक रहा तू कहां।।
न जाने कितने यहां आये,
और कितने ही चले गये।
दुनियां की मोह माया में,
वह तो केवल छले गये।।
झूठा दंभ है बसा हृदय में,
तू उन्मादी ऐसा हो गया।
बड़ा समझ रहा खुद को,
विवेक तेरा कहां खो गया।।
न भूखे को भोजन दीन्हा,
न प्यासे को दीन्हा पानी।
कहां गयी मानवता तेरी,
और गया आंखों का पानी।।
जग कल्याण के काम कर,
तू कर ईश्वर में विस्वास।
कह रही अनुभूति मुझसे,
क्यों बना इन्द्रियों का दास।।
श्रीकृष्णाय नमो नमः🌹🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏🙏
सत्यप्रकाश पाण्डेय
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