श्रीमती स्नेहलता'नीर
गीत
सूखी पड़ी नेह की नदिया,मरुथल हुई प्रीति की पुलकन
सुख की कोरी रही कल्पना,झुलस रहा मन का वृंदावन।
1
नहीं प्रेम की एक बूँद भी,इस जग से हमको मिल पाई।
राग-द्वेष की दुसह पीर की,अंतर् में बढ़ती गहराई।।
डाल रही दुनिया घावों पर,मिर्च, रामरस,अम्ल-रसायन
2
संबंधों के मतलब बदले,स्वार्थ सभी का ध्येय बना है।
सबके हाथों खूनी खंजर,अविवेकी मन रक्त सना है।
मीठे बैन छलावा केवल,अंतरंग है बहुत अपावन।
3
जिस पर किया भरोसा अतिशय,उसने छला हमें नित पल-छिन।
वर्षों बाद समझ पाए हम, भाग्य-रेख में बैठी नागिन।।
रात-दिवस व्याकुल नयनों से,झरझर-झरझर बहता सावन।
4
घुटती साँसों की नजरों से,रूठ गया अपना ही साया।
कफन दुखों का हमें उढ़ाकर,सबने जिंदा लाश बनाया।
अनहद दूर मौत जा बैठी,शूलों का है बना बिछावन।
श्रीमती स्नेहलता'नीर
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