स्नेहलता 'नीर'

कुण्डलिया छंद


नारी को हक कब दिया,जिसकी वो हकदार


फिर भी तो हर रूप में,लुटा रही नित प्यार।
लुटा रही नित प्यार,काम घर का सब करती।
कठपुतली -सी नाच,नाच कर कभी न थकती।
भरा वक्ष में दूध,जिंदगी फिर भी खारी।
बना पुरुष हैवान,बड़ी बेबस है नारी।।


कुण्डलिया नंबर- 2
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नारी को कब है मिला,समता का अधिकार।
कभी कहा अबला उसे,कभी दिया दुत्कार।।
कभी दिया दुत्कार,न उसको गले लगाया।
कठपुतली -सा नित्य,गया है नाच नचाया।
जाग गयी है आज,बनी तलवार दुधारी।
अरे पुरुष नादान,नहीं नर से कम नारी।।



कुण्डलिया संख्या -3
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नारी को देवी कहा,दिया नहीं सम्मान।
क्यों समाज रक्खा बना,अब तक पुरुष प्रधान।।
अब तक पुरुष प्रधान,रहा नारी क्यों अबला।
करता अत्याचार ,नहीं अब तक भी बदला।
नाच -नाच कर नाच,बनी वनिता चिंगारी।
भारी पड़ती आज,सभी पुरुषों पर नारी।।



कुण्डलिया संख्या-4
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नारी का करता मुझे,सच मे विचलित चित्र।
क्यों कठपुतली है बनी,रमणी प्राण -पवित्र।।
रमणी प्राण -पवित्र,बनी  क्यों नर की दासी।
हाड़ -माँस की देह,हृदय है मथुरा काशी।
छलकें नयना 'नीर',बड़ी दिखती दुखियारी।।
मौका दो दिल खोल,गगन चूमेगी नारी।।


---स्नेहलता 'नीर'


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