स्नेहलता नीर गीत
साँस-साँस सहमी-सहमी है,
हर पल लगता डर।
भूचालों पर खड़े काँपते
सुख-सपनों के घर।
दिन मेहनत के बल पर गुजरे,
जाग-जाग रातें।
आसमान भी लेकर आता
बेमौसम घातें।
धक-धक धड़काते हैं छाती,
चिंता के बादल।
हुआ किसानी में तन जर्जर,
अंतर्मन घायल।
सूखा कभी तुषार झेल कर ,
फसल रहीं सब मर
नेह बिना रिश्ते-नाते सब,
सूखे-सूखे हैं।
बोल और व्यवहार सभी के,
रूखे -रूखे हैं।
प्रीति-कोंपलों पर दुश्मन की ,
आरी चलती है।
सुनकर सीने में प्रकोप की,
ज्वाला जलती है।
दीन-धरम,ईमान तिरोहित,
सोच-समझ पत्थर।
बिका हुआ कानून,अदालत
अंधी-लँगड़ी है।
पड़ी झूठ के कदमों पर अब,
सच की पगड़ी है।
थोथे वादों,कुटिल इरादों,
की सरकारें हैं।
फँसी भँवर में सबकी नैया,
बिन पतवारें हैं।
मौत नाचती है अब सिर पर,
नैन हुए निर्झर।
मस्त बहारें रूठ चुकी हैं,
सावन भी रूठा।
कली-कली का तोड़ रहा दिल
मधुसूदन झूठा।
लाज आज बन चुकी खिलौना,
और चीज नारी।
जब चाहे शैतान खेलते,
कैसी लाचारी।
रिश्तों में ही घोल रहे हैं,
रिश्ते स्वयं जहर।
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