सुनीता असीम
तेरे मेरे प्यार का कैसा फ़साना हो गया।
रोज मिलने के लिए जाना बहाना हो गया।
***
कह रहा है आदमी खुद को मगर बनता नहीं।
कर जमाने की बुराई समझा सयाना हो गया।
***
वक्त कैसा आ गया मां-बाप की इज्जत नहीं।
रोज उनको बस रुला नजरें चुराना हो गया।
***
वो कभी रोता कभी हसता दिखाने के लिए।
किस तरह का आज ये तो मुस्कराना हो गया।
***
इस तरह का प्यार करते लोग सारे आजकल।
वस्ल की इच्छा जताना दिल लगाना हो गया।
***
सुनीता असीम
३/२/२०२०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें