ये मुहब्बत भी तो कांटों का ही सफ़र लगता है।
छू नहीं सकते जिसे पाने में डर लगता है।
***
हर नजारा तेरी फ़ुरकत का मजा है देता।
पर गगन में तो खिला आधा क़मर लगता है।
***
हर कदम सिर्फ मुसीबत का लगा है डेरा।
चाहतों का नहीं नफरत का नगर लगता है।
***
जिन्दगी सिर्फ बनी आग की होली उसकी।
नींव से टूटा हुआ वो तो शज़र लगता है।
***
है नहीं कोई खुशी आज बची है इसमें।
ये दरकती दिवारों वाला घर लगता है।
***
सुनीता असीम
१३/२/२०२०
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सुनीता असीम
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