*"जो तू चाहे तो"* (ताटंक छंद गीत)
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विधान- १६+१४=३० मात्रा प्रतिपद, पदांत SSS, युगल पद तुकांतता।
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●क्यों न भला मानव बन सकता, बनना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
क्यों न स्वर्ण कुंदन बन सकता, तपना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
●जग के नभ में पतंग डोले, ऊपर उड़ती ही जाए।
पल-पल यह जीवन मर्मों का, भेद खोलती ही जाए।।
क्यों न साधना सध सकती है, सधना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
●आचंभित क्यों होता है तू, अपनी हर करनी से ही।
प्रारब्ध बनाता मानव है, करनी की भरनी से ही।।
क्यों न कभी खुशियाँ ला सकता, लाना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
●अगस्त बन सिंधु सोख लेगा, अगर सोखना चाहेगा।
उमंग साहस युत कोई क्यों, भला रोकना चाहेगा??
क्यों न कभी किस्मत गढ़ सकता, गढ़ना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
●संकल्प-शिला पर पग अपना, दृढ़ हो जब रख लेगा तू।
साहस-संबल-समीकरण से, सपना निज पा लेगा तू।।
क्यों न कभी मंजिल पा सकता, पाना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
●'नहीं' नहीं है शब्द मनुज के, सुन शब्द-कोश में कोई।
स्तब्ध करे करनी मानव की, धुन साथ होश में कोई।।
क्यों न कभी 'नायक' बन सकता, बनना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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