*"तिरस्कृत फिर माँ काहे?"*
(कुण्डलिया छंद)
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
●महती महिमा मातु की, सीख सकल संसार।
सच्ची शुचि संवेदना, परम पुलक परिवार।।
परम पुलक परिवार, नेह की ज्योति जलाती।
देकर शुभ आशीष, मातु देवी कहलाती।।
कह नायक करजोरि, स्रोत प्रेमिल बन बहती।
सींचे सारी सृष्टि, मान माँ महिमा महती।।
●सहती सब संताप को, माँ मन-धारे धीर।
प्रगट करे न कहीं कभी, अपने मन की पीर।।
अपने मन की पीर, भलाई सबकी चाहे।
करती है उपकार, तिरस्कृत फिर माँ काहे??
कह नायक करजोरि, दुःख में निशिदिन दहती।
करे न पर अपकार, कष्ट चुपके से सहती।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
"""'''''''"""""""""""""""""""""""""""""""""""""
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें